Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८ होते हैं। क्योंकि इनके अतिरिक्त शेष सत्तास्थान एकेन्द्रिय अथवा क्षपकक्षेणि में सम्भव है । तथा__तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जो सत्तास्थान कहे हैं, उनमें से नवासी प्रकृतिक को छोड़कर शेष ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक इस प्रकार पाँच सत्तास्थान होते हैं और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि निकाचित तीर्थकरनाम की सत्तावाला कोई भी जीव तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं होता है । तथा
उपर्युक्त कथन का यह आशय हुआ कि मनुष्यगति में सभी सत्तास्थान होते हैं । लेकिन इसका अपवाद है कि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय शेष सभी (११ सत्तास्थान) मनुष्यगति में होते हैं। क्योंकि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यद्विक की उद्वलना करने के बाद होता है और मनुष्यद्विक की सत्ता बिना का कोई भी मनुष्य होता ही नहीं है । जिससे मनुष्यगति में अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है।
इस प्रकार से चतुर्गति में नामकर्म के सत्तास्थानों को जानना चाहिये । अब गुणस्थानों में उनका निर्देश करते हैं । गुणस्थानों में नामकर्म के सत्तास्थान
पढमचउक्कं सम्मा बीयं खीणाउ बार सुहमे अ।
सासणमीसि वितित्थं पढममजोगंमि अट्ट नव ॥८॥ शब्दार्थ-पढमच उक्कं-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, सम्मा-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, बीयं-द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क, खोणाउ-क्षीणमोह से, बार-बादर, सुहुमे—सूक्ष्मसंपराय, अ-और, सासणमोसि-सासादन और मिश्रगुणस्थान में, वितित्थं-तीर्थकरनाम रहित, पढम-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, अजोगमि-अयोगिकेवली गुणस्थान में, अट्ट नव-आठ और नौ प्रकृतिक।
गाथार्थ-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रथम सत्तास्थानचतुष्क होता है तथा क्षीणमोह और बादरसंपराय एवं
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