Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकृति का जिस गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है, उसी गुणस्थान तक ही उस प्रकृति का उदय होता है, उसके बाद के गुणस्थान में उदय नहीं होता है । अतएव इस नियम के अनुसार साधारणनाम आदि प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही उदय होता है । सासादन आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता है ।
उक्त चौंसठ प्रकृतियों में से चार प्रकृतियों के कम हो जाने से सासादन गुणस्थान में साठ प्रकृतियों का उदय होता है और यहाँ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति और स्थावरनाम इन पांच प्रकृतियों का उदयविच्छेद होने से मिश्रदृष्टि आदि आगे के गुणस्थानों में इनका उदय नहीं होता है । अर्थात् एकेन्द्रियजाति आदि पांच प्रकृतियों का उदय सासादन गुणस्थान तक ही होता है । अतएव साठ प्रकृतियों में से इन पांच प्रकृतियों को कम करने से मिश्र गुणस्थान की उदययोग्य पचपन प्रकृतियां हैं । किन्तु मिश्र गुणस्थान की इतनी विशेषता है कि मिश्रदृष्टि काल नहीं करता है । जिससे चारों आनुपूर्वियों का उदय संभव नहीं है । अतः एकेन्द्रियजाति आदि पांच प्रकृतियों के साथ चार आनुपूर्वी को भी कम करने से इक्यावन प्रकृतियों का उदय मिश्रदृष्टि गुणस्थान में होता है ।
इस प्रकार से आदि के तीन गुणस्थानों में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियों को बतलाने के बाद चौथे आदि गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं
सम्मे विविछक्कस दुभंगणा एज्जअजसपुव्वीणं । विरयाविरए उदओ तिरिगइउज्जोयपुव्वाणं ॥ ६०॥
शब्दार्थ - सम्मे – अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, विउठिवछक्कस्सवैकियषट्क का, दुमगणा एज्ज अजसपुब्बीणं- दुभंग, अनादेय, अयशः कीर्ति, आनुपूर्वी का, विरयाविरए - विरताविरत ( देशविरत ) में, उवओ उदय, तिरिगइ उज्जोयपुव्वाणं तिर्यंचगति और उद्योत नाम सहित ।
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