Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३,६४
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प्रकृतियों के समुदाय की पिंड यह संज्ञा है । यहाँ बंधन के पाँच भेदों की विवक्षा होने से तेरानवै प्रकृतियाँ कही हैं । इन तेरानवै प्रकृतियों का समूह रूप पहला सत्तास्थान है । किसी जीव को एक साथ तेरा - नव प्रकृतियां भी सत्ता में होती हैं ।
उक्त तेरानवै प्रकृतियों में से तीर्थंकरनाम को कम करने पर बानवै प्रकृति प्रमाण दूसरा सत्तास्थान होता है तथा उक्त तेरानवै प्रकृतियों में से आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, आहारकबंधन और आहारकसंघात रूप आहारकचतुष्क को न्यून करने पर नवासी प्रकृति प्रमाण तीसरा सत्तास्थान होता है और तेरानवै में से तीर्थंकरनाम व आहारकचतुष्क दोनों को कम करने पर अठासी प्रकृतिक चौथा सत्तास्थान होता है । इन चार सत्तास्थानों को प्रथम सत्तास्थानचतुष्क कहते हैं ।
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पूर्वोक्त प्रथम चतुष्क में से क्षपकश्रेणि में नौवें गुणस्थान में नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । इनकी द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यह संज्ञा है ।
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पहले सत्तास्थानचतुष्क के चौथे अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से देवगति, देवानुपूर्वी की ( अथवा नरकगति, नरकानुपूर्वी की) उद्वलना होने पर छियासी प्रकृति प्रमाण पहला अध्रुव संज्ञा वाला सत्तास्थान होता है । उसमें से यदि पहले नरकद्विक की उवलना हुई हो तो देवद्विक और वैक्रियचतुष्क की उवलना होने पर अथवा यदि पहले देवद्विक की उवलना हुई हो तो नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की उद्बलना होने पर अस्सी प्रकृति का समूह रूप अध्रुवसंज्ञा वाला दूसरा सत्तास्थान होता है । उसमें से मनुष्यद्विक की उवलना होने पर अठहत्तर प्रकृति का समुदाय रूप अध्रुव संज्ञा वाला तीसरा सत्तास्थान होता है तथा नौ प्रकृति प्रमाण और आठ प्रकृति प्रमाण कुल मिलाकर नामकर्म के बारह सत्तास्थान होते हैं ।
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