Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६
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४६०६, वैक्रिय तियंच पंचेन्द्रिय के ५६, सामान्य मनुष्य के २६०२, केवली के ८, वैक्रिय मनुष्य के ३५, आहारक संयत के ७, देवों के ६४ और नारकों के ५ । इस प्रकार चारों गति के जीवों के सभी उदयस्थानों के कुल भंगों की संख्या सात हजार सात सौ इक्यानवें होती है ।
इस प्रकार से चारों गति में संभव नामकर्म के उदयस्थानों को जानना चाहिये | अब नामकर्म की जो प्रकृतियां जिस गुणस्थान तक उदय और जिस गुणस्थान में जिनका उदयविच्छेद होता है, उसको स्पष्ट करते हैं ।
नामकर्म की प्रकृतियों के उदययोग्य गुणस्थान
साहारणाउ मिच्छे सुहुमअपज्जत्तआयवाणुदओ । थावर एगि दिविगलजाईणं ॥ ८६ ॥
सासायणमि
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शब्दार्थ -साहारणाउ- - साधारण का, मिच्छे- मिथ्यात्व गुणस्थान में, सुहमअपज्जत्तआयवाणुदओ -- सूक्ष्म अपर्याप्त, आतप का उदय, सासायमिसासादन गुणस्थान में, थावरए गिदिविगलजाईणं - स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति का ।
गाथार्थ - साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त और आतप का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में और स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति का सासादन गुणस्थान में उदय होता है ।
विशेषार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में भिन्न भिन्न जीवों की अपेक्षा तीर्थंकर और आहारकद्विक' के बिना नामकर्म की चौसठ प्रकृतियों का उदय होता है । इनमें से साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त और आतप नाम
१. तीर्थंकर नाम का उदय तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में और आहारकद्विक का उदय छठे सातवें गुणस्थान में होने से यहाँ उनका निषेध किया है । यहाँ रसोदय की विवक्षा है, प्रदेशोदय की नहीं ।
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