Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३
स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माणनाम इस प्रकार पच्चीस प्रकृतियां होती हैं ।
यहां सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यश:कीर्ति-अयशःकीर्ति का विपर्यास करने पर आठ भंग होते हैं । देशविरत श्रावकों और सर्वविरत मुनियों को दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का गुणप्रत्यय से ही उदय नहीं होता है । जिससे वैक्रिय शरीर करने पर उन्हें सुभग, आदेय और यशःकीर्ति का ही उदय होने से सर्वप्रशस्त एक ही भंग होता है। ___शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय होता है, जिससे इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं।
प्राणापानपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उच्छ्वास नाम का उदय होता है। जिससे उसका उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं । अथवा संयत को उत्तर वैक्रिय शरीर करने पर शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है। जिससे उसके उदय को मिलाने पर भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां एक ही भंग होता है। क्योंकि संयत को अप्रशस्त प्रकृतिदुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का उदय नहीं होता है। कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के नौ भंग होते हैं।
तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में सुस्वर के उदय को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। अथवा संयत को स्वर का उदय होने के पहले उद्योत का उदय होने पर भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्ववत् एक ही भंग होता है और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के नौ भंग होते हैं।
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