Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका -
- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७
केवली भगवन्तों के उदयस्थान
तसबायरपज्जत्तं सुभगा एज्जं पंचिदिमणुयगई । जसकीत्तितित्थयरं अजोगिजिण अट्टगं नवगं ॥ ८५ ॥ निच्चोदयपगइजुआ चरिमुदया केवलीसमुग्धाए । संठाणेसु सव्वेसु होंति दुसरावि केवलिणो ॥ ८६ ॥ पत्तेउवधायउरालदु छ य संठाण पढमसंघयणा । छूढे छसत्तवीसा पुव्वत्ता सेसया उदया ॥८७॥
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शब्दार्थ - तसबायर पज्जत्तं - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभगाएज्जं - सुभग, आदेय, पंचिदिमणुयगई— पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, जसकीत्तितित्थयरंयशः कीर्ति, तीर्थंकर नाम, अजोगिजिण - अयोगि जिन, ( केवली ) अट्ठगं - आठ प्रकृतिक, नवगं - नौ प्रकृतिक |
निच्चोदय पगइजुआ - ध्रुवोदया प्रकृतियों सहित, चरिमुदया— चरमोदय वाले, केवलीस मुग्धा — केवलि समुद्घात् में, संठाणेसु सव्र्व्वसु- सभी संस्थानों में, होंति — होते हैं, दुसरावि - दुःस्वर भी, केवलिणी - केवली भगवान को ।
पत्ते - प्रत्येक, उवघाय - उपघात, उरालदु — औदारिकद्विक, छ— छह, य— और, संठाण - संस्थान, पढमसंघयणा -- प्रथम संहनन, छूढ - मिलाने पर, छसत्तवीसा - छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक, पुव्वत्ता - पूर्व में कहे गये अनुसार, सेसया - शेष, उदया - उदयस्थान |
गाथार्थ - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, यशः कीर्ति, इन आठ प्रकृतियों का उदय सामान्य अयोगिकेवली को और तीर्थंकर नाम सहित नौ प्रकृतियों उदय तीर्थंकर केवली को होता है ।
ध्रुवोदया प्रकृतियोंयुक्त पूर्वोक्त चरमोदया प्रकृतियों सहित उदयस्थान केवली समुद्घात में होते हैं । केवली भगवान को सभी संस्थान होते हैं एवं दुःस्वर का भी उदय होता है ।
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