Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१४४
पंचसंग्रह : १० अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक, ये आठ उदयस्थान होते हैं। यह चौथा गुणस्थान चारों गति के जीवों में करण-अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होता है। यद्यपि अपर्याप्त-अवस्था में कोई भी नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु पूर्वभव से लाया हुआ हो सकता है। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में प्राप्त नौ उदयस्थानों में से मात्र चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान यहाँ नहीं होता है। इसका कारण यह है कि वह चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्दियों में ही होता है और एकेन्द्रियों में चौथा गुणस्थान नहीं होता है।
पूर्वोक्त अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आठ उदयस्थानों में से पच्चीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष सात तथा आठवां 'वीसओ केवली समुग्धाए' पद द्वारा जिसका संकेत किया है वह बीस प्रकृतिक कुल मिलाकर आठ उदयस्थान सयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं । जो इस प्रकार हैं-२०, २१, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक । इनमें से २०, २१, २६, २७ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान समुद्घात अवस्था में, २८, २६ प्रकृतिक योगनिरोध अवस्था में, ३० प्रकृतिक स्वभावस्थ सामान्य केवली को अथवा वचनयोग का निरोध करने के बाद तीर्थंकर केवली को होता है और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तीर्थकर भगवान को होता है । तथा
"पणवीसाए देसे छन्वीसूणा" अर्थात् छब्बीस प्रकृतिक न्यून पच्चीस प्रकृतिक से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक के छह उदयस्थान देशविरत गुणस्थान में होते हैं । वे इस प्रकार हैं-२५, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक। उनमें से पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस
चारों गति के जीवों में पर्याप्तावस्था में संभव उदयस्थान होते हैं। इस प्रकार अपर्याप्तावस्था के २१, २४, २५, २६ प्रकृतिक ये चार और पर्याप्तावस्था के २६, ३०, ३१ प्रकृतिक इस तरह तीन, सब मिलकर सात उदयस्थान यहां संभव हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org