Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२, ५३, ५४
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बाईस प्रकृतियां अपर्याप्तयोग्य बंध करते बंधती हैं । जिससे ये अपर्याप्तक-बंध संज्ञा वाली हैं ।"
इस प्रकार से अपर्याप्तबंधयोग्य प्रकृतियों का निर्देश करने के बाद अब त्रस तथा पर्याप्त एकेन्द्रियादियोग्य बंध प्रकृतियों का निरूपण करते हैं ।
त्रस तथा पर्याप्त एकेन्द्रियादि योग्य बंध प्रकृतियां
बंधइ सुमं साहारणं च थावरतसंगछेवट्ठ । पज्जत्ते उ सथिरसुभजससासुज्जोवपरघायं ॥ ५३ ॥ आयावं एगिदियअप सत्यविहदूसरं व विगलेसु । पंचिदिएसु सुसराइखगइ संघयणसंठाणा ॥ ५४ ॥
शब्दार्थ - बंधइ -- बंधती हैं, सुहुमं - सूक्ष्म, साहारणं -- साधारण, च और, थावर- -स्थावर नाम, तसंगछेवट्ठ- त्रस, अंगोपांग और सेवार्त संहनन, पज्ज -पर्याप्त योग्य, उ और, सथिर सुभजस - स्थिर, कीर्ति सहित, सासुज्जोवपरघायं -- उच्छ्वास, उद्योत पराघात ।
शुभ, यश:
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आयावं - आतप, एगिंदिय – एकेन्द्रिय, अपसत्य विहदू सरं- अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर, व -- और, विगलेसु - विकलेन्द्रिय में, पंचिदिए— पंचेन्द्रिय के बंध में, सुसराइ - - सुस्वरादि, खगइ - - विहायोगति, संघयण संठाणा-संहनन और संस्थान |
गाथार्थ - एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर सूक्ष्म, साधारण और स्थावर, सयोग्यबंध में त्रसनाम, ( औदारिक) अंगोपांग, सेवार्त संहनन तथा पर्याप्त योग्य बंध करने पर स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, उच्छ्वास, उद्योत पराघात सहित बंध होता है, पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बांधने पर आतप बंधता है, विकलेन्द्रिययोग्य बंध करने पर अप्रशस्त विहायोगति और दु:स्वर बंधता है | पंचेन्द्रिययोग्य
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१ पर्याप्त नाम के साथ ये प्रकृतियां बंध और उदय में असम्भव हैं ।
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