Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
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इन पच्चीस प्रकृतियों का बंध अपर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करते हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य-तियंचों को समझना चाहिये ।
इन पच्चीस प्रकृतियों में प्रतिपक्ष रूप परावर्तमान एक भी प्रकृति बंधने वाली न होने से एक ही भंग होता है ।
उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्तनाम को कम करके पर्याप्त नाम मिलाकर दुःस्वर नाम, पराघात, उच्छ्वास और अशुभविहायोगति का प्रक्षेप करने पर उनतीस प्रकृतियों का बंधस्थान होता है । यह उनतीस प्रकृतियों का बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंचों का होता है ।
पर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करने पर स्थिर, शुभ और यशः कीर्ति का भी बंध होता है । इसलिये अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति के स्थान पर विकल्प से उनका भी प्रक्षेप करना चाहिये । जिससे उनतीस प्रकृतियों का बंध इस प्रकार कहना चाहिये
तिर्यंचद्विक, द्वीन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्ड संस्थान, सेवार्त संहनन, वर्णचतुष्क, अशुभ विहायोगति, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, निर्माण, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक । यहां स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ और यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति की चालना करने से तीन पद के आठ भंग होते हैं ।
उक्त उनतीस प्रकृतियों में उद्योत नाम को मिलाने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इसके भी पूर्वोक्त प्रकार से आठ भंग होते हैं । सब मिलाकर तीनों बंधस्थानों के सत्रह भंग होते हैं । उनके बंधक संख्यात वर्ष की आयु वाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य- तिर्यच जानना चाहिये ।
इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य- तिर्यचों के भी पूर्व में कहे गये भंगों के साथ तीनों बंधस्थान
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