Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ देवगतियोग्य बंधस्थान
तित्थयराहारगदोतिसंजुओ बंधो नारयसुराणं ।
अनियट्टीसुहमाणं जसकित्ती एस इगिबंधो ॥६३॥ शब्दार्थ-तित्थय राहारगदो-तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक, तिसंजुओतीन को मिलाने पर, बंधो-बंध, नारयसुराणं-नारकों के योग्य देवयोग्य, अनियट्टीसहमाणं-अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म संपराय गुणस्थान मे, जसकित्तीयशःकीर्ति, एस-यही, इगिबंधो-एक का बंध।। __गाथार्थ-नारकों के योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान को शुभ प्रकृतियों से युक्त करने पर देवयोग्य होता है। तथा उसमें तीर्थकरनाम, आहारकद्विक इन तीन को मिलाने पर तीन (उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक) बंधस्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में यशःकीर्ति रूप एक ही बांधस्थान होता है ।
विशेषार्थ-गाथा में देवगतियोग्य बंधस्थानों एवं गुणस्थानापेक्षा यशःकीति के बंध होने के स्थान का संकेत किया है। उनमें से देवगतियोग्य बंधस्थान इस प्रकार है
नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतिक जो बंधस्थान पूर्व में कहा जा चुका है, उसी को शुभ प्रकृति युक्त करने पर देवगतियोग्य होता है । क्योंकि देवगतियोग्य बंध करते मनुष्य, तिथंच अपने प्रशस्त परिणाम होने के कारण परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । मात्र अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति रूप प्रकृतियां अशुभ होने पर भी देवगतियोग्य बांध करने पर बांधती हैं। क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध योग्य परिणाम छठे गुणस्थान तक होते हैं । ___ अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति ये स्थिर, शुभ और यश:कीर्ति की प्रतिपक्षभूत हैं। जिससे उनका विकल्प से प्रक्षेप करना चाहिये और उनको इस प्रकार कहना चाहिये-देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्र-संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु,
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