Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १० कहना चाहिये । लेकिन त्रीन्द्रिय के सम्बन्ध में कहने पर त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय के सम्बन्ध में कहने पर चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये। भंग प्रत्येक के सत्रह, सत्रह जानना चाहिये । इस प्रकार विकलेन्द्रियों के इक्यावन भंग होते हैं। __तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य भी पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान हैं। उनमें से अपर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करने पर जो पच्चीस प्रकृतियां कही हैं वही पच्चीस प्रकृतियां अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोग्य बंध करने पर भी जानना चाहिये। मात्र द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति कहना चाहिये। परावर्तमान सभी अशुभ प्रकृतियों के ही बंधने से यहाँ भी एक ही भंग होता है। इन अपर्याप्तयोग्य पच्चीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यच हैं।
पराघात, उच्छ्वास, दुःस्वर और अप्रशस्त विहायोगति इन चार प्रकृतियों को पूर्वोक्त पच्चीस में मिलाने पर उनतीस प्रकृतियाँ होती हैं और वे पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंध करते मनुष्य, तिथंच, देव और नारकों को जानना चाहिये। इतना विशेष है कि देव और नारक गर्भज तिर्यंचयोग्य ही उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं, परन्तु संमूर्छिम योग्य बांध नहीं करते हैं। ___ अब यहाँ पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंध की शुरुआत करते पूर्व में जो 'पंचेन्दिए सुसराई' यानि पंचेन्द्रिययोग्य बंध करने पर सुस्वरदि का भी बंध होता है, कहा था, तदनुसार सुस्वर, सुभग, आदेय, प्रशस्त-विहायोगति, आदि के पाँच संस्थान, आदि के पाँच संहनन इस तरह चौदह अन्य प्रकृतियां भी बंधाश्रयी संभव है और वे दुःस्वरादि की प्रतिपक्ष रूप हैं। जिससे दुःस्वर, दुर्भग और अनादेय के स्थान पर सुस्वर, सुभग और आदेय का, अप्रशस्त विहायोगति के स्थान पर प्रशस्त-विहायोगति का, हुण्ड संस्थान के स्थान पर क्रमशः पाँच संस्थान का और सेवार्त संहनन के स्थान पर क्रमशः पाँच संहनन का विकल्प से प्रक्षेप करना चाहिये । इस प्रकार करने पर उनतीस प्रकृतियां इस तरह कहना चाहिए
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