Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५
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इसलिये पर्याप्त विकलेन्द्रिययोग्य तेतीस प्रकृतियां बंधयोग्य होती हैं ।
तथा
जब पर्याप्त तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य प्रकृतियों का बंध हो तब सुस्वर, सुभग, आदेय, प्रशस्तविहायोगति और अंतिम संस्थान तथा संहनन का ग्रहण पूर्व में कर लिये जाने से उसके सिवाय पांच संहनन और पांच संस्थान इस तरह चौदह अन्य प्रकृतियों का बंध संभव है । जिससे सैंतालीस प्रकृतियां बंधयोग्य समझना चाहिये | 1
इस प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थावर और त्रसयोग्य बंध करते जितनी प्रकृतियां हो सकती हैं, उतनी जानना चाहिये अब नामकर्म के बंधस्थानों का निरूपण करते हैं ।
नामकर्म के बंधस्थान
तेवीस पणुवीसा छव्वीसा अट्ठवीस वीसेगतीस एगो बंधठाणाइ
शब्दार्थ - तेवीसा-तेईस, पणुवीसा - पच्चीस, छथ्वीसा - छब्बीस, अट्ठावीस अट्ठाईस गुणतीसा- उनतीस, तोसेगतीस-तीस, इकत्तीस एगो - एक प्रकृतिक, बंधट्ठाणाइ – बंधस्थान, नामेऽट्ठ- नामकर्म के आठ ।
गुणतीसा ।
नामेऽट्ठ ॥५५॥
गाथार्थ - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक, इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थान हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों की संख्या और प्रत्येक बंधस्थान कितनी प्रकृति संख्या वाला है, इसका निर्देश किया है । जो इस प्रकार समझना चाहिये
१ यद्यपि तिर्यंचगतियोग्य अधिक से अधिक तीस प्रकृतियां बंध में हैं । परन्तु यहां परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों को भी गिनने से संख्या अधिक ज्ञान होती है । यदि उनको कम कर दिया जाये तो संख्या बराबर होगी ।
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