Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १० बांधने पर सुस्वरादि, खगति (विहायोगति) संहनन और संस्थान नामकर्म का भी बंध होता है।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सहचारिणी बंधयोग्य प्रकृतियों का कथन किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
अपर्याप्तबंध संज्ञावाली प्रकृतियों का ऊपर निर्देश किया है । अब यदि उन प्रकृतियों को बांते हुए जब एकेन्द्रिय योग्य बंध करे तब स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम रूप तीन प्रकृतियां भी बंधयोग्य होती हैं- "बंधइ सुहुमं साहारणं च थावर।" तथा-सयोग्य बंध हो तब त्रसनाम, औदारिक-अंगोपांग, और सेवार्त संहनन ये तीन प्रकृतियां बंधयोग्य समझना चाहिये"तसंगछेवळं।" इस प्रकार पच्चीस-पच्चीस प्रकृतियां बंधती हैं। तथा
पर्याप्त नाम का बंत्र करे तब पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्तनाम कम करके स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, उच्छ्वास, उद्योत और पराघात मिलाने पर जितनी होती हैं, उतने का बंध होता है'पज्जत्ते उ सथिरसुभजससासुज्जोवपरघायं ।' तात्पर्य यह हुआ कि जब पर्याप्त नाम के बंध का विचार करें तब पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम करके पर्याप्त नाम को मिलाना चाहिये
और उसके बाद स्थिर आदि छह प्रकृतियों को मिलाने से इकत्तीस होती हैं। इन इकत्तीस प्रकृतियों का पर्याप्त स्थावर एकेन्द्रिययोग्य बंध हो तब या पर्याप्त त्रसयोग्य बंध हो तब यथासंभव समझना चाहिये, तथा
जब खरबादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध हो तब बत्तीसवां आतपनाम भी बंधयोग्य समझना चाहिये-'आयावं एगिदिय' । तथा
जब पर्याप्त विकलेन्द्रिययोग्य बंध हो तब अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर नाम का बंध होता है-'अपसत्थविहदूसरं व विमलेसु।'
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