Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
२. बादर और प्रत्येक के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर दूसरा, ३. सूक्ष्म और साधारण के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर तीसरा और ४. सूक्ष्म व प्रत्येक के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर चौथा भंग होता है । अर्थात् परस्पर विरोधी प्रकृतियों के होने के कारण एक ही बंधस्थान चार प्रकार से बनता है।
इस प्रकार से अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध प्रकृतियां जानना चाहिये । अब पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का कथन करते हैं कि पूर्वोक्त बंधस्थानों में से कोई प्रकृति निकालकर उसके स्थान पर अन्य का प्रक्षेप करना चाहिये। इसी प्रकार अन्य बंधस्थानों में भी समझना चाहिये। ऐसा होने से सामान्यतः प्रकृतियों का व्यत्यास-फेरफार करने की यह दृष्टि है_ 'गइइंदियाइ आसज्ज वच्चासो होइ' अर्थात् गति, इन्द्रिय और आदि शब्द से वैक्रियादि शरीर की अपेक्षा पूर्व में कहे गए बंधस्थान की प्रकृतियों में व्यत्यास-फेरफार करना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि तिर्यंचगति और द्वीन्द्रियादि इन्द्रिय की अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकृतियों में से कितनी ही प्रकृतियों को तो स्वयमेव दूर करना चाहिये और कितनी ही प्रकृतियों का प्रक्षेप करना चाहिये । जैसे कि देवगति अथवा नरकगति आश्रयी बंधस्थानों का विचार करने के लिये उपर्युक्त बंधस्थान में से स्थावरादि चतुष्क कम करके उसके स्थान पर प्रसादि चतुष्क जोड़ना चाहिये तथा द्वीन्द्रियादि के बंधस्थानों का विचार करना हो तब स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन तीन प्रकृतियों को हटाकर उनके स्थान पर त्रस, बादर और प्रत्येक का प्रक्षेप करना चाहिये। वैक्रिय और आहारक का बंध सम्बन्धी विचार करें तब औदारिक के स्थान पर वैक्रिय और आहारक लेना चाहिये । क्योंकि देवगतिप्रायोग्य तीस या इकत्तीस प्रकृतिक बंध हो तब आहारक और उसके साथ वैक्रिय नाम का बंध होता है। उस समय औदारिकनाम का बंध नहीं होता है। इस प्रकार जिस-जिस के योग्य बंध
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