Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११
२६ पुद्गल परावर्तन जितने काल के अनन्तर पुनः सम्यक्त्वादि प्राप्त कर सकता है।
छह-प्रकृतिक बंध-स्थान का उत्कृष्ट निरन्तर बंधकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण है। इसका कारण यह है कि मिश्र से अन्तरित क्षयोपशम सम्यक्त्व का उतना अवस्थान काल है। उतने काल के अनन्तर कोई क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता है और कोई मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर अवश्य नौ-प्रकृतिक बंधस्थान का ही बन्ध होता है । छह के बंधस्थान का जघन्य बंधकाल अन्तमुहूर्त है।
चार-प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य बंधकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहर्त है। चार-प्रकृतिक बंधस्थान जघन्य से एक समय उपशमणि में होता है। क्योंकि उपशमश्रेणी में अपूर्वकरण के दूसरे भाग के प्रथम समय में चार का बंधस्थान बाँध कर बाद के समय में कोई काल करके देवलोक में जाये तो वहाँ अविरत होकर छह प्रकृतियों का बंध करता है। इस अपेक्षा चार के बंधस्थान का एक समय जघन्यकाल है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होने का कारण यह है कि चार का बंध अपूर्वकरण के दूसरे भाग से दसवें गुणस्थान तक ही होता है और उसका समुदित काल भी अन्तमुहूर्त जितना ही है । इस प्रकार चार के बंधस्थान की जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त स्थिति है।
इस प्रकार दर्शनावरणकर्म के बंधस्थानों का काल प्रमाण जानना चाहिये । अब सत्तास्थानों के काल प्रमाण का निर्देश करते हैं। दर्शनावरण के सत्तास्थानों का काल प्रमाण
दर्शनावरणकर्म का नौ-प्रकृतिक सत्तास्थान कालापेक्षा अनादिअनन्त, अनादि-सान्त इस तरह दो प्रकार का है। किसी भी समय व्यवच्छेद होना संभव नहीं होने से अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त
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