Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह : १०
शब्दार्थ -- बंधइ --- बंध होता है, तित्थनिमित्ता- तीर्थंकर कर्म के निमित्त से, मणुउरलदुरिसमदेदजोगाओ - मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन, देवगतियोग्य प्रकृतियों का, नो-नहीं, सुहुमतिगेण - सूक्ष्मत्रिक के साथ, जसं — यगः कीर्ति, नो- -नहीं, अजसऽथिराऽसुभाहारे - अयशः कीर्ति, अस्थिर, अशुभ का आहारक का बध होने पर ।
१००
गाथार्थ - तीर्थंकरकर्म के निमित्त से मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन और देवगतियोग्य प्रकृतियों का गंध होता है, सूक्ष्मत्रिक के साथ यशः कीर्ति का तथा आहारक का बंध होने पर अयशः कीर्ति, अस्थिर और अशुभ का बंध नहीं होता है ।
विशेषार्थ - गाथा में बताया है कि देवगति में तीर्थंकरनाम का बंध करने पर तत्सहचारी कितनी प्रकृतियों का बंध होता है तथा बंध की अपेक्षा कौन सी प्रकृतियां सहचारी हैं । तीर्थंकरनाम के साथ बंधने वाली प्रकृतियां इस प्रकार हैं
देवगति में वर्तमान जब तीर्थंकरनाम का बंध करता है तब उस तीर्थंकरनाम के साथ - मणुउरलदुरिसभदेवजोगाओ' मनुष्यद्विकमनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग रूप औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन इन पांच प्रकृतियों तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक के सिवाय पूर्व गाथा में कही गई अस्थिर, अशुभ आदि सत्ताईस प्रकृति कुल बत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । 1 तथा
सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नामकर्म के साथ यशः कीर्ति का
१
इसी प्रकार नरकगति में तीर्थंकरनामकर्म को बांधे तत्र भी उक्त बत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि देव और नारकों के तीर्थंकर नाम का बंध चौथे गुणस्थान में ही होता है और वहाँ उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध होता है ।
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org