Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
अट्ठाईस प्रकृतिक सत्ता वाला वेदक सम्यक्त्वी जीव एक छियासठ सागरोपम और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में जाकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे, उसे दूसरी बार के छियासठ सागरोपम । इस प्रकार बीच में अन्तर्मुहूर्त मिश्र गुणस्थान प्राप्त कर दो बार उत्कृष्ट स्थिति वाला क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले को अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का एक सौ बत्तीस सागरोपम काल घटित होता है । तत्पश्चात् क्षपक श्रेणि अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । अब यदि क्षपक श्रेणि प्राप्त करे तो उसे मिथ्यात्वादि का क्षय होने से अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं रहता है । इस प्रकार क्षपकश्रेणि प्राप्त करने वाले की अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का अवस्थान काल दो छियासठ सागरोपम होता है और जो जीव दो छियासठ सागरोपम का काल पूर्ण कर मिथ्यात्व प्राप्त करे, वह पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल में सम्यक्त्वमोहनीय की पूर्ण रूप से उद्बलना करता है । जब तक उद्बलना न करे तब तक उसकी सत्ता होती है । जिससे वैसे मिथ्यादृष्टि को अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक दो छियासठ सागरोपम का अवस्थान काल होता है । इसी प्रकार चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी अवस्थान काल समझना चाहिये - 'बे छावट्ठी अडचउवीस' । परन्तु इतना विशेष है
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एक सौ बत्तीस सागरोपम का काल पूर्ण करके जो जीव मिथ्यात्व प्राप्त करता है, उसे मिथ्यात्व के पहले समय से ही अनन्तानुबंधि कषाय का बंध होने से उसकी सत्ता सम्भव है । जिससे उसके चौबीस
१ यहाँ बीच के मिश्रगुणस्थान सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त सहित एक सौ बत्तीस सागरोपम काल अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का कहना चाहिये था, परन्तु वैसा न कहकर गाथा में एक सौ बत्तीस सागरोपम काल कहा है । क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल अत्यल्प होने से उसकी विवक्षा नहीं की है । इसी तरह बीच के होने वाले मनुष्य भव की भी विवक्षा नहीं की है ।
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