Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५,४६ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं रहता है । इसलिए चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का अवस्थान काल परिपूर्ण दो छियासठ सागरोपम है और दोनों सत्तास्थानों का जघन्य अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त है। जो इस प्रकार जाना चाहिये
छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि तीन करण द्वारा उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला होता है। अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाले उस उपशम सम्यग्दृष्टि को जिस क्षण सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होता है, उसी क्षण दर्शनसप्तक का क्षय करना प्रारम्भ करता है । दर्शनसप्तक का क्षय करते पहले अनन्तानुबंधिकषाय का क्षय करता है। जब तक उसका क्षय न करे तब तक अट्ठाईस प्रकृतिक और क्षय करने के बाद चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। वह चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान भी मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय न करे तब तक और मिथ्यात्व का क्षय करे तब तेईस का सत्तास्थान होता है। जिससे अट्ठाईस और चौबीस प्रकृति रूप दोनों सत्तास्थानों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा___ 'इगिवीसे उ तेत्तीसा' अर्थात् इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागरोपम है। जो इस प्रकार जानना चाहियेमनुष्य भव में दर्शनसप्तक का क्षय करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव हो, वहाँ की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु का अनुभव कर मनुष्य भव को प्राप्त करे और जब तक उस मनुष्य भव में क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ न हो तब तक उसे इक्कीस प्रकृति का सत्तास्थान होता है। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट अवस्थान काल साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है तथा जघन्य काल अन्तमुहर्त है और वह दर्शनसप्तक का क्षय करने के बाद तत्काल चारित्रमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करने वाले की अपेक्षा जानना चाहिये। तथा
पूर्वोक्त के अतिरिक्त शेष रहे सत्तास्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये । जैसे कि मिथ्यात्व
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