Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
होता है और उदय माया या लोभ दोनों में से एक का ही होता है । यहाँ दो के उदय के दो भंग होते हैं ।
संज्वलन माया का बंधविच्छेद हो तब एक संज्वलन लोभ का ही बंध होता है और उदय में भी एक संज्वलन लोभ ही होता है । मान और माया का भी बंध और उदय साथ ही विच्छिन्न होता है । यहाँ एक-एक के उदय का एक ही भंग होता है ।
यहाँ पाँच आदि बंधस्थानों में यद्यपि संज्वलन के उदयापेक्षा कोई विशेष नहीं है । क्योंकि उदय में वही प्रकृति होती है, तो भी बंधस्थान की अपेक्षा भेद होने से विकल्प पृथक् गिने हैं ।
प्रमत्त, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में तो बंधस्थान की अपेक्षा भी कोई भेद नहीं है, क्योंकि सभी नौ का बंध करते हैं । उदय में भी कोई भेद नहीं है, जिनसे उनके भंग अलग नहीं गिने हैं तथा मोहनीय की एक भी प्रकृति नहीं बाँधने वाले सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में एक संज्वलन लोभ का उदय होता है, जिससे उसका एक भंग होता है ।
इस प्रकार सब मिलाकर पांच आदि के बंधक और अबंधक के उदय के विकल्प तेईस होते हैं । जिन्हें पूर्वोक्त नौ सौ साठ में मिलाने पर नौ सौ तेरासी विकल्प होते हैं ।
इस विषय में मतान्तर भी है । जिसका यहाँ उल्लेख करते हैंचउबंधगेवि बारस दुगोदया जाण तेहिं छूढेहिं ।
बंध एवं पंचणसहस्समुदयाणं ॥ २६ ॥ बारस दुगोदएहिं भंगा चउरो य संपराएहि । सेसा तेच्चिय भंगा नवसय छावत्तरा एवं ||३०||
शब्दार्थ - चउबंधगेवि-चार के बंध में भी, बारस - बारह, दुगोदया -दो के उदय के, जाण - जानो, तेहि— उनको, छूढेहि-- मिलाने से, बंधगभेएवं – बंधक के भेद से ही, पंचूणसहस्समुद्रयाणं - उदय के पाँच कम
हजार !
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