Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८
सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने पर चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। मिथ्यात्व के निमित्त से अनन्तानुबंधि की पुन: भी सत्ता होती है ।
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विशेषार्थ -- अनादि मिथ्यादृष्टि के मोहनीयकर्म का छब्बीस प्रकृतिक रूप एक ही सत्तास्थान' होता है अथवा अट्ठाईस की सत्ता वाला जब सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय की उवलना करता है तब छब्बीस की सत्ता होती है और अट्ठाईस की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना कर चुका किन्तु अभी मिश्रमोहनीय की उवलना नहीं की है तो जब तक उद्वलना न की हो तब तक उसको सत्ताईस प्रकृतियां सत्ता में होती हैं तथा अनन्तानुबंधि की विसंयोजना' करे तब चौबीस प्रकृति सत्ता में होती हैं ।
प्रश्न - - - जब अनन्तानुबंधि कषाय की विसंयोजना की यानि सत्ता में से निर्मूल हुई तब असद्भूत हुई उन कषायों की सत्ता का पुनः प्रादुर्भाव किस प्रकार होता है ? क्योंकि जो सत्ता में से ही नष्ट हो गई वह पुनः सत्ता में कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर - मिथ्यात्व से अनन्तानुबंधि की क्षपणा करने वाले ने अनन्तानुबंधि को सत्ता में से निर्मूल किया, परन्तु उसकी बीज रूप मिथ्यात्वमोहनीय को नष्ट नहीं किया है । जब तक वह बीज है तब तक अनन्तानुबंध की सत्ता होना संभव है । क्योंकि मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से जब प्रथम गुणस्थान में जाता है तब मिथ्यात्व रूप निमित्त द्वारा अनन्तानुबंध कषाय का बंध करता है और जब बंध करता है तब सत्ता में अवश्य प्राप्त होती है ।
इस प्रकार से मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का विस्तार से विवेचन जानना चाहिये । इसी प्रसंग में यह भी संकेत किया है कि मोहनीय कर्म प्रकृतियों की उवलना भी होती है । उनके कौन उवलक होते
१ एक साथ जितनी प्रकृतियां सत्ता में होती है, उसे सत्तास्थान कहते हैं । २ विसंयोजना का अर्थ क्षपणा है ।
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