Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
का विच्छेद होने के बाद संज्वलन माया और लोभ इन दो का ही बंध होता है । बंधविच्छेद के प्रथम समय में संज्वलन मान का प्रथम स्थिति संबंधी एक (उदय) आवलिका काल में भोगने योग्य बलिक और दो समय न्यून दो आवलिका जितने काल में बंधा हुआ दलिक इतना ही मात्र सत्ता में होता है। शेष सर्व का क्षय हुआ होता है । वह सत्तागत दलिक भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होगा । जब तक उसका क्षय न हुआ हो तब तक दो के बंध और एक के उदय में तीन की सत्ता और क्षय होने के बाद दो प्रकृति की सत्ता होती है । इस प्रकार दो के बंधक को दो सत्तास्थान और पूर्व में कहे गये उपशमश्रेणि आश्रयी तीन को मिलाकर पाँच सत्तास्थान होते हैं ।
तथा
संज्वलन माया की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र बाकी रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ नाश होता है । उसका क्षय होने के बाद एक संज्वलन लोभ का ही बंध अवशेष रहता है । संज्वलन लोभ के बंध के प्रथम समय में संज्वलन माया का प्रथम स्थिति का आवलिका मात्र दलिक और दो समयन्यून दो आवलिका जितने काल में बंधा हुआ दलिक सत्ता में शेष रहता है, उसके सिवाय अन्य सब क्षय हो गया है । वह अवशिष्ट सत्तागत दलिक भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होता है । जब तक क्षय नहीं हुआ होता है, तब तक दो की सत्ता और क्षय होने के बाद मात्र एक लोभ की सत्ता होती है । इस प्रकार एक के बंध और एक के उदय में दो और एक प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और उपशमश्रेणि आश्रयी तीन सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर पाँच सत्तास्थान होते हैं ।
इसी बात का गाथा में संकेत किया गया है-चार, तीन, दो और एक के बंधक के अनुक्रम में चार, तीन, दो और एक का सत्तास्थान तो होता ही है परन्तु बंध की अपेक्षा एक प्रकृति में अधिक सत्ता रूप अंश होते हैं - 'एगाहियाय बंधा चउबंधगमाइयाण संतंसा । '
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