Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
५.५
आदि दर्शनमोहनीयत्रिक के क्षय के लिये तथाप्रकार के विशुद्ध अध्यवसायरूप सामग्री के अभाव से प्रयत्न नहीं कर सका । तत्पश्चात कालान्तर में गिरते परिणामों से मिथ्यात्व में गया और वहाँ मिथ्यात्वरूप हेतु से अनन्तानुबंधिकषाय के बंध की शुरुआत की किन्तु उसकी बंधावलिका जब तक पूर्ण न हुई हो, तब तक उसका उदय नहीं हो सकता है, किन्तु बंधावलिका पूर्ण होने के बाद उदय होता है । इस स्थिति में अनन्तानुबंधि रहित उदयस्थान संभव है ।
प्रश्न- अनन्तानुबंधिकषाय की मात्र एक बंधावलिका जानेबीतने के बाद ही उसका उदय कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रत्येक प्रकृति का अमुक अबाधाकाल होता है और जब वह पूरा हो तब उदय होता है । अनन्तानुबंधिकषाय का जघन्य अबाधाकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट चार हजार वर्ष प्रमाण है । अतः कम-से-कम भी अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद ही अनन्तानुबंधिकषाय का उदय होना चाहिये, मात्र आवलिका बीतने के बाद ही उसका उदय कैसे हो सकता है ?
उत्तर- उपर्युक्त दूषण यहाँ संभव नहीं है । क्योंकि बंध समय से लेकर उसकी सत्ता होती है, जब सत्ता हुई तब बंधकाल पर्यन्त वह पतद्ग्रह प्रकृति के रूप में होती है और जब पतद्ग्रह रूप में होती है तब उसमें समान जातीय शेष प्रकृतियों के दलिकों का संक्रम होता है और संक्रमित वह दलिक पतद्ग्रह प्रकृति रूप में परिणमित होता है । संक्रमित दलिक का संक्रमावलिका जाने के बाद उदय होता है । जिससे बंधावलिका बीतने के बाद उदय होना विरुद्ध नहीं है ।
पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि जिस समय अनन्तानुबंधि का बंध हुआ, उस समय से लेकर वह पतद्ग्रह हो जाती है । जिससे उसमें जिसका अबाधाकाल बीत गया है, ऐसी अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के दलिक संक्रमित होते हैं-- अनन्तानुबंधि रूप होते हैं और अनन्तानुबंधि रूप हुए वे अप्रत्याख्यानावरणादि के दलिक संक्रम समय से एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org