Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२
गाथार्थ- नौ और तेरह प्रकृतिक बंधस्थान की देशोन पूर्वकोटि, सत्रह की तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति है । बाईस के बंध की तीन भंग रूप और शेष बंधस्थानों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति है ।
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विशेषार्थ -- तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है यानि तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान देशोन पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त बंधता रहता है। क्योंकि तेरह का बंध देशविरत गुणस्थान में और नौ का बंध सर्वविरत गुणस्थान में होता है और उन दोनों गुणस्थानों का काल देशोन' पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है ।
सत्रह के बंध का काल उत्कृष्ट से साधिक तेतीस सागरोपम है । क्योंकि अनुत्तर विमानवासी देवों की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु है और वहाँ सर्वदा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है, जिससे सदैव सत्रह का बंध होता है । वहाँ से च्यत्रकर मनुष्य में उत्पन्न होने के बाद जब तक उनको देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त न हो तब तक सत्रह का बंध होता रहता है । इसीलिये कुछ अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण काल सत्रह - प्रकृतिक बंध का कहा है ।
बाईस - प्रकृतिक बंध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है । जिससे उस बंधस्थान के तीन भंग इस प्रकार हैं
१. अभव्य को बाईस का बंध अनादि - अनन्त काल पर्यन्त होता है । क्योंकि अभव्यों के सर्वदा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान ही होता है ।
१ देशोन कहने का कारण यह है कि विरति परिणाम जन्म के बाद आठ वर्ष की उम्र होने के बाद ही होते हैं और वे विरति परिणाम पूर्वकोटि की आयु वाले के ही होते हैं । पूर्वकोटि वर्ष से अधिक आयु वाले असंख्यात वर्ष की आयु वाले कहलाते हैं और उनको विरति परिणाम होते ही नहीं हैं । इसी कारण देशोन पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण काल उक्त दो बंधस्थानों का कहा है ।
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