Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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प्राक्कथन
जैन दर्शन में कर्मवाद के विचार की आद्य इकाई कर्म का स्वरूप है और कर्म के स्वरूप को लेकर दार्शनिकों के विभिन्न मत हैं । कोई कर्म को चेतननिष्ठ और कोई अचेतन का परिणाम मानते हैं । इस मतभिन्नता का परिणाम यह हुआ कि कर्म के सद्भाव को स्वीकार करते हुए भी वे दार्शनिक कर्मवाद के अन्तर्रहस्य का दिग्दर्शन नहीं करा सके। इसके साथ ही अन्य दर्शनों के साहित्य में आत्मा की विकसित दशा का वर्णन विशद रूप में किया गया देखने को मिलता है । लेकिन अविकसित दशा में इसकी क्या स्थिति होती है । विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के पूर्व किन-किन अवस्थाओं को पार किया और उन अवस्थाओं में आत्मा की क्या स्थिति होती है आदि एवं विकास का मूल आधार क्या है ? इसका वर्णन प्रायः बहुत ही अल्प प्रमाण में देखने को मिलता है। जबकि जैन दर्शन की कर्म- विचारणा में यह सब वर्णन विपुल और विशद रूप में किया गया है। इस वर्णन के बहुत से आयामों का निरूपण ग्रंथ के पूर्व अधिकारों में किया जा चुका है । और आगे के अधिकारों में भी अन्य प्रश्नों पर विचार चर्चा की जायेगी । किन्तु प्रकृत अधिकार में आत्म-परिणामों के द्वारा कर्म दलिकों में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं। और वे परिवर्तित कर्म दलिक किस रूप में अपना विपाक वेदन कराते हैं, आदि का वर्णन किया जा रहा है । इस प्रक्रिया को शास्त्रीय शब्दों में संक्रम कहते हैं और इस संक्रम में आत्म-परिणाम कारण हैं । अतएव इन परिणामों का बोध कराने के लिये 'करण' शब्द का प्रयोग किया गया है ।
इस संक्रमकरण का ग्रंथकार आचार्य ने जिस क्रम से वर्णन किया है, उसका विषय परिचय के रूप में संकेत करते हैं ।
अधिकार को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम आचार्य ने संक्रम का सामान्य लक्षण बतलाया है कि परस्पर एक का बदलकर दूसरे रूप में हो जाना । जिसका आशय यह हुआ कि बध्यमान प्रकृतियों में अबध्यमान प्रकृतियों का
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