Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ४. लक्ष्मण की मृत्यु राम की मृत्यु के समाचार के कारण न होकर किसी
असाध्य रोग से बतलाई गई है । ५. कैकयी के हठ करने तथा राम को वनवास देने का इसमें कोई कथन
नहीं है। ६. स्वर्णमृग के पीछे राम के दौड़ने के बाद रावण राम का वेष धारण कर
सीता को पालकी में बैठाकर ले जाता है। ७. लक्ष्मण के द्वारा यहाँ बालि बघ होता है। ८. सीता के आठ पुत्र थे। इनमें लव-कुश का उल्लेख नहीं है ।
पदमचरित और उत्तरपुराण की कथाओं में इस प्रकार भेद क्यों पड़ा। इसके विषय में विचार करते हुए पं. नाथूराम प्रेमी ने अपने जैन साहित्य और इतिहास में लिखा है कि पलमचरिय और पद्मपरित की कथा का अधिकांश वाल्मीकि के ढंग का है और उत्तरपुराण की कथा का जानकी जन्म विष्णुपुराण के ढंग का है। दशरष बनारस के राजा थे, यह बात बौद्ध जातक से मिलतीजुलती है। उत्तरपुराण के समान उसमें भी सीता निर्वासन, लव-कुश जन्म आदि नहीं है अर्थात् भारतवर्ष में रामक्रया की जो तीन परम्परायें है ये जैन सम्प्रदाय में भी प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। पचमचरिय के कर्ता ने कहा है कि उस पद्मचरित को मैं कहता हूँ जो आचार्यों को परम्परा से चला आ रहा है और नामावली निबद्ध है। इसका अर्थ यह है कि रामचरित उस समय नामावली रूप में था अर्थात उसमें कथा के प्रधान पात्रों के, उनके माता, पिताओं और स्थानों भवान्तरों आदि के ही नाम होंगे । वह पल्लवित कथा के रूप में न होगा और उसी को विमल सूरि ने विस्तृत चरित के रूप में रचना की होगी । इस प्रकार गुणभद्र की रामकथा के आधार के विषय में पं० नाथूराम प्रेमी इस प्रकार लिखते है-'हमारा अनुमान है कि गुणभद्र से बहुत पहले विमलसरि के समान किसी अन्य आचार्य ने भी जैनधर्म के अनुकूल स्रोपपत्तिक और विश्वसनीय स्वतन्त्र रूप से राम कथा लिखी होगी और वह गुणभद्राचार्य को गुरु परम्परा द्वारा मिली होगी ।२५ गुणभद के गुरु जिनसेन ने अपना आदिपुराण कवि परमेश्वर की गद्यकथा के आधार से लिखा था। गुणभद्र की गुरुपरम्परा के दो और नाम कन्ना भाषा के कवि चामुण्डराय की रचना में मिलते
--" -- - - २७, पामावलियनिबद्धं आयारियपरंपरागय सम्छ । बोच्छामि पउमचरिय अहाणुपुत्रिय समासेण ।। ८ ।।
नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ९५ । २८. वही, पृ० ९५ ।
२९. वही, पृ. ९६ ।