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४-न्यायविनिश्चयविवरण-पर महाकलंकदेव के पायविनिश्चय' का भाप है और मैंग्याय के प्रसिद्ध अन्धेरे में इसकी गणना है। इसको लोक संख्या २०,०००है।
-प्रमाणानिर्णय-प्रमाणशास्त्र कर यह छोटा सा स्त्रनं मन्य है जिसमें प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष और भाग नाम बार अयाय है। माणिकचन्द्र-जैन-मन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है।
__अध्यात्माएक-यह भी एक छोटा सा आठ पत्यका प्रन्य है और माणिकयन्द्र-मन्धमालामें प्रकाशित हो चुका है। पर यह निषपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसके कत्ता ये हो वादिराज है।
त्रैलोक्यदीपिका नाम का अन्ध भी धादिराज सूस्किा होना हालिये जिसका संकेत ऊपर टिप्पणी में उन्धत किये हुा. 'लोक्पदीपिका वर्मा आदि पद में मिलता है। स्व. सेमाणिकञ्चनजी ने अपने यहां के ग्रन्थ-संग्रह की प्रशस्तियों का जो रजिस्टर बनाया था उसे सलूम होता है कि उक संग्रह में 'बैलोक्यदीपिका' नाम का एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें आदि दस और अम्त के ५८ दैन से भाने के पत्र नहीं है। सम्भव है, यह धादिराजसूरेि की हो रचना हो। इसे करणानुयोग का ग्रन्थ लिखा है।
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श्रीगसारस्वतण्यतीर्थनित्याक्याहामलवुडिसश्वैः । प्रसिद्धपाणी मुनिपुणवेन्द्रः श्रीनन्दिसंघोऽस्ति नियहितां ॥ समिसभूतसंयमधीस्विद्यविद्याधरमीत कीर्तिः । सूरिः स्वयं सिंहपुरैकमुख्यः श्रीपालदेवो नयवर्मशाली ॥२॥ तस्याभवतव्यसरी रुहाणां तमोक्हो नित्यमष्ठोदयश्री। जिपंधदुर्भागनयप्रभाषः शिष्योसमः श्रीमसिसागराण्यः ॥३॥ तत्पादनभ्रतरण भूना निश्रेयसौरविलोलपेन। श्रीवादराजेन कथा निबद्धा जैनी स्वबुद्धेयमनिर्दयापि
शाकान्द गवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे कोधने मासे कार्तिकमामिन बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंह पति जयादि वसुमती जैनी कथेयं मया निष्पत्ति गमिता सती भवतु वः कल्याणप्तिपत्तये ॥५॥ लक्ष्मीचासे वसतिकटके कगातीरभको कामापातिप्रमवसुभरे सिंहमकेश्वरस्य । निष्पन्नोऽयं नवरससुधास्यन्दसिन्धुप्रबन्धो जीयाच्चैर्जिनपतिभधग्रक्रमकान्तपुण्यः ॥६॥ अभ्यश्रीजिनदेवजम्मविभरम्यारर्णमाहारिणः श्रोता या प्रसरत्यमोदसुभगो व्यारानकारो च यः । सोऽयं मुक्तिबधूनिसर्गसुभगो जायेत किं कशः सर्गातेऽप्युपयाति वाळायलसलुक्ष्मीपदश्रीपदम् ॥
सातमिदं पार्श्वनायचरितम् ।