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न्यायविनिशंयविवरण
चाहना है। आगे , ६, ७ तं पर्यों में भी इसी तरह के भाव है-जब आप मेरी रित्तारया पर विश्राम करेंगे, लो मेरे कशी को कैसे गरम करेंगे ? आपकी स्प्रादाद-दापिका में स्नान करमे से मेरे दुःख-सन्ताप क्यों न दूर होगमय शापके घरण रखने ये सामी लोक पवित्र हो जाते है सब सोंग मा से आपको स्पर्श करने वाला मेरा मन यो दशगभागी न होगा ? आदि।
हमाद हर्षवर्धन के समय के मधूर कवि के विषय में भी सो महाफवि वाश के ससुर और सूर्यसानक नाम र के का है एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है। मम्मत काय प्रकाश के साकार जयराम ने लिखा है कि मयूर कवि सौ इलोकों से सूर्य का स्तवन करके हुए रोग से मुक्त हो गया। मुधासागर नाम के दूसरे काकार ने लिखा है कि मथर फदि यह निश्चय करके कि या तो कट से मुक्त हो जाऊँगा या प्राण ही छोड़ नूगा हरद्वार गया और गंगातट के एक बहुन ऊँचे झाड की शाखा पर सो रस्सियों वाले छीके में बैठ गया और सूर्य देव की मुक्ति करने लगा। एक एक पा को कहकर बह छींके की एक एक रस्सी काटता जाता था। इस तरह करते करते सूर्यदेव सन्तुए हाए और उन्होंने उसका शरीर उसी समय मौरीन
और मुन्दर कर दिया। काथ्यटकाश के नौसरे टीकाकार जगनाथ ने भी लगभग यही बात कही है। हमारा अनुमान है कि इसी सूर्यशतकमजन की कथा के अनुकरण पर प्राविराजपूरि के एकीभाद ममोन की कृपा पदी गई है।
हिन्दुओं के देवता तो 'फत 'मक मन्याकन स्म होते हैं, इसरिये उनके विषय में इस तरह की कथायें कुछ अर्थ भी रखती हैं परन्तु जिनभगवान न नो हिका से प्रसन्न होते है और न उनमें यह पामध्य है कि किसी भयंकर रोग को यास को वश में दूर कर दे। अतएव जैन धर्म के विश्वासों के साथ इस सराह की कार का कोई हलासम्जस्य नहीं बैटता।
प्रन्ध रचना-चादिराजमूरि के अभी तक नीचे लिखे पाँच अन्य उपलब्ध हुए है
१नायनाथमरिस-यह एक १२ सर्ग का महाकाव्य है और "माणिकचन जैन-धमाल में प्रकाशित हो चुका है। इसकी बहुत ही गुन्दर सरल और पीक रचना है। 'पाश्चमार्थकाफुस्थतरित नाम से भी इसका उहलेन किया गश है।
२-यशोधरबस्ति--यह एक चार सर्ग का छोटाला खण्डकाव्य है जिसमें सब मिलाकर २९६ परा है। इसे संऔर के स्व० टी० एस० करपूस्वामी शास्त्री ने बहुत समय पहले प्रकाशित किया या सो अथ अनुपलभ्य है। इसकी रचना पाश्र्वनाथचरित के आद हुई घौ । क्योंकि इसमें उन्होंने अपने को पारवनायचरिम झा का बतलाया है।
३-पकीमावस्तोत्र-यह एक छोटा सा २५ पर्यों का अतिशय सन्दर स्तोत्र है और 'मुकीमाचं थत इव मया' से प्रारम्भ होने के कारण एकीभाव नाम से प्रसिद्ध है।
१-"मयूरनामा कविः सतलोकन दिल स्तुरवा कुलानिस्तीर्णः इति प्रसिद्धिः।
-पुरा किल मयूर शर्मा ठो कविः वशमसहिy: सूर्यप्रसादेन कुष्ठानिसभि प्राणावा त्यामि इति निश्चित्य हरिद्वारं गत्वा गंगटे अत्युच्च शाखावलम्बि सतरशिक्यमशिलतः सूर्यमस्तीपोत् । अकरोच्दैकपद्यान्ते एकैकरमवधि गोदाम् । एवं मिलमा काश्चतुष्टो रविः स एव निरोगी रमणीयां च तत्तनुमकश्वौत् । प्रसिई तन्मयूरक्षप्त सूचनायरपर्यामिति ।"
३-श्री मन्मयूरभः पूर्वजन्मदुधदेतकगलिसकजुटी......इत्यादि । ४- श्रीपानाधास्ववरित येन कीर्तितम् ।
म श्रीषादिराजेन इन्चा याशोधरी कथा ।। ५--शोधस्थरित, पर्ष पहले मैंने मूल 'श्री पार्श्वनायकारस्थचरित' पद से पदमश्चरित और काकुत्स्थचरित नाम के दो अन्य समक्ष लिये थे। मेरी इस मूल को मेरे बाद के लेखकों ने भी दुइया है । परन्तु ये दो अन्म होते तो द्विवचनान्तपथं होना चाहिए था, जो नहीं है । 'कारस्थ' पाश्वनाथ के नैश का परिचायक है।