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भ्यायविनिश्चययिधरण
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में ही निवास करते हुए श० ० ९५७ की कार्तिक मुभी ३ को बनाया था। यह जयनिह का ही राज्यकाल है। यह राजधानी लक्ष्मी का निवास भी और सरस्वती देवी (गाय) की अन्समि थी।
परधरपरित के तंगपरे वर्ग के अन्तिम वय' में और चौथे मर्ग के उपाय में कवि ने चातुराई से महाराजा जयसिंह का उल्लेख किया है। इससे सम्म होता है कि यशोधरयरिख की रखना भी जयसिह के समय में हुई है।
राजधानी-मालय जयसिद की राजधानी कहाँ थी, इसका अभी तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। परन्तु पाश्यगाथचरित की प्रशस्ति के इस से ऐस मालूम होता है कि वह 'कहोशः नामक स्थान में होगी जो इस समय मदास सदन मरा देखने की गद्य-होरगी शाखा पर एक साधारण सा गाँव है और जो बदामी से १२ माल उसर की भोर है। यह पुराना सार है और इसके चारों और अन भी पादर-पनाह के चिन्ह मौजूद है। उक श्लोक का पूर्वान्दू मुदित प्रति में इस प्रकार का है
लक्ष्मीयासे वलति कटके कट्टपातीरभृमौ
पामावासियमदसुभगे सिंहचकेश्वरस्य।। इसमें सिंहचक स्वर अाम् जयसिंहदेवर्की राजधानी ( कटक.) का वर्णन है. जहाँ रहते हुए बन्धकर्ता ने पाश्नायवरित की रचना की थी। इसमें राजधानी का नाम अवश्य होना चाहिये। परन्तु उता. सट से उसका पता नहीं चलता सिर्फ इतना मालूम होता है कि वहाँ लक्ष्मी का निवास आ, और यह कहगा नदी के तीर की भूमि पर थी। हमारा अनुमान है कि अब पाठ गरीति भूभौ होगा, जो उत्तर भारत के अड, खका की कुपः सं कगातारभूमीवर भया है। उन्६ +या पसा कि कहगेरी' जैसा अरब नाम भी क्रिमी राजधानी का हो सकता है।
जयसिंह के युव सोमेश्वर या आहबमार ने 'कल्याण मामा मगरी थसाई और वहाँ अपनी राजधानी स्थापित की। इसका उस्लेख चिहण ने अपने विक्रमांक देवरित में किया है। कल्याण का नाम इसके पहले के किसी भी शिलालेग्य या नात्यापन में उपलब्ध नहीं हुआ है, अतएव इसके पहले चालुक्यों की राजधानी मेरी में ही रही होगी। इस स्थान में पालुक्य विक्रमानि- (.) का.स. १
नीशिलारेख भी मिला है जिससे इसका पालुक्य-पान के अन्तर्गत होना स्पध होता है। कट्टया ना को कोई नदी उस तरफ नहीं है।
___ मष्टाधीश-पाननाथचरित की प्रशस्ति में शदिराजसूरि ने अपने दादागुरु श्रीपालदेव को 'सिंहपुरकमुख्य लिया है और न्यायधिनिश्चयविवरण की प्रशस्ति में अपने आप को भी 'सिंहपुरेश्वर' लिखा है। इन दोनों शब्द का अर्थ यही मालूम होता है कि ये सिंहपुर मामक स्थान के स्वामी, अर्थात सिंहपुर उन्हें जागार में मिला हुआ था और शायद यहीं पर उनका मत था।
श्रवणबेलगोल के ४९३ नम्बर के शिलालेख मैं-जो सं० १०४ का उत्कीर्म क्रिया शुआ हैयादिराज की हो शिष्यपरम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को होयसलनरेश.विशुवदन पोरसलदेव के द्वारा जिनमन्दिरी के जीणोद्वार और ऋषियों को आहार-धाम के हेतु शल्प नामक गाँव को दानस्वरूप देने का प्रर्वज है और १९५ नम्बर के शिलालेख में--प्रोपा. सं. ११३२ के लगभय का उत्कीर्ण किया हुआ है-- लिखा है कि पड्दर्शन के अध्येता पालदेव के स्वगंधास होने पर उसके शिष्य वादिराज (सीय) ने
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१-यातन्वजय सिंहको रणमुरी बोयी धारिणीम् । २-मुग्वजयसिंहो राज्यलक्ष्मी भार ।। ३--सर्गर ली
४-इस मुनि परम्परा में वादिराज और श्रीवालदेव नामके कई आचार्य हो गये हैं। ये यादिराज पसरे हैं। ये गंगनरेश सन्दमन्द चतुर्भ या सायनाक्य के गुरु थे।