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न्यायविनिश्वयविवरण
की रचना की थी। ऐसी दशा में सन् ६७६ के आसपास रखी गई म में अकल के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख एक ऐसा मूल प्रमाण व लकता है जिसके आधार से न केवल अकल का ही समय निश्चित किया जाता है अपितु इस युग के अनेक बौद्धावाद और वैदिक भाषाओं के समय पर भी मौलिक प्रकाश डाला जा सकता है। मैं इसी अन्य के द्वितीय भाग की प्रस्ताव में या राजार्तिक ग्रभ्य को प्रस्तावना में इसकी साधार चानयन करना चाहता हूँ। अभी तक जो सामग्री प्राप्त हुई है उसके आधार से उपसूचना देकर विराम लेता हूँ। यदि का समय सुनिश्चित है ३ कोथा ये उस समय
नाम
उनने अपना ९४० सिंहदेव की राजधानी में निवास करते थे। उनके इस समय की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी होती है। अतः सन् १०३५ के आसपास ही इस अन्य की रचना हुई होगी। जैन समाज के सुप्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपने 'जंग साहित्य और इतिहास ग्रन्थ में जिन व विपालकों की जानकारी के fer साभार उट
दरार पर किया जाता है।
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वादिराजरि
परिचय शीर कीर्तनदिर में से बड़े बड़े है। व्याचन्द्र के कर्ता उन्ही समान भट्टाक देव के एक न्याय-अन्य के टीकाकार भी ।
होकर भी और इससे उनका योगदेव सेक सकती है जिनकी बुद्धिरूप से जीवनभर शुक रूप वास कर कान्यदुग्ध से सहयजनों को तृप्त किया था।
चादिराज मिल या दविण संध के थे। शाखा के ये आचार्य थे। अगल किसी स्थान था कहलाती थी ।
हुए हैं, कादिराज उन्हीं मचन्द्राचार्य के समकालीन और
इस संघ में भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अगल आम का नाम था, जहाँ की सुमिपरम्परा अरु माम्ब
पति और जगाद उनकी उपाधियों अर्थ है कि सारे शाब्दिक (वैयाकरण )
एकीमतो के हाद
अन्त में एक
किंक और
से पीछे है जी बराबरी कोई नहीं कर सकते एक लेख में कहा है कि सभा में मे अल-देव (जैन), धर्मद्रहस्पति (क) और (मेधाविक केतु है और इस तरह से इन जुदा ख़ुदा धर्मगुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधि से जान पड़ते हैं। में उनकी और भी और aft प्रकट किया गया है।
की गई है और उन्हें महाबारी वित
१ देखी 'संघ में भी मन्दिर १- परत पमुख स्याद्वाद विद्यापतिगल जगदेकमल्लकादि -140
[ रा सम्पादित नगर के इनं० ३६ । ३- मादिराजः।
५४ एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् ।
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दिजननु कान्तस्ते वादिराजम मध्यसहायः ॥ एकीभाषांत्र | कोने पुरोधाद
इति सतिनिधिरिव देशराज यदि ३९
यह शक्ति श ० १०५० ( ० ० ११८५ की हुई है।
क्योकि दादादिद्रादिरागतः ॥४०॥
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