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न्यायविनिश्चयविवरण
प्रत्यक्ष का असाधक है, क्योंकि ऐसा निकाय ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिये मानल प्रत्यक्ष मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। बड़ी और गरम जलेबी खासे समय जितनी इन्द्रियधुद्धियाँ उत्पन्न होती है उसने ही सदनन्तरभावी अर्थको विषय करमेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना हांगे; क्योंकि शाद में उसने ही प्रकार के विकल्पमान उत्पन्न होते हैं। इस तरह अनेक मानस प्रत्यक्ष मानने पर सन्तानभेद हो जाने के कारण 'जो मैं गाने वाला हूँ यही मैं सूंघ रहा हूँ। यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। यदि समा रूपादि को निफ्य करने वाला एक ही मानस प्रत्यक्ष मानस जाय; तब तो उसी से रूपाधि का परिज्ञान भी हो ही धावपा, फिर इन्दियबुद्धियाँ किस लिये स्वीकार की जाये ? धर्मातर में मनस प्रत्यक्ष को आमसिन कहा है। अकलक देव में उसकी भी आलोचना की है कि जब वह माय भागमसिह ही है, तब उसके लक्षण का परीक्षण ही निरर्थक है।
स्वसंधेदन प्रत्यक्ष खण्डम-यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है सो निर तथा मदि अवस्थाओं में ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मारने में स्पा बाधा है। सुपुल आदि अवस्थाओं में अनुभवसिद्ध शान का निरेष लो किया ही नहीं जा सकता। यदि उक अवस्थाओं में ज्ञान का अभाव हो तो उस समय योगियों को चनु सत्यविश्वक भावनाओं का भी मिलोट गाना पड़ेगा। .
घौद्धसम्मत विकल्प के लक्षण कर निराम-ौच 'लभिशापयत्ती प्रतीतिः कपना' अर्थात् को ज्ञान शब्दसंसर्ग के योग्य हो उस भान फो कल्पना या विकल्प शान कहते हैं। सफलङ्गदेव ने उनके इस लक्षण का पान करते हुए लिखा है कि...यदि शब्द के द्वारा कहे जाने लायक शाम का नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंजय के कोई भी विकास उत्पन्न ही नहीं हो सकता तव शब्द तथा शब्दांशी के स्मरणात्मक विकल्प के लिये ताधक भन्म शब्दों का प्रयोग मानमा होगा, उन अन्य शब्दों के सारण के लिए भी साधक अम्य शब्द स्वीकार करना होंगे, इस सरह दूसरे दूसरे शब्दों की सपना करने से अवस्था नाम का पण आता है। अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पासा सब विकरपानरूप सावक के अभाव में विधिकल्पक भी सिद्ध ही रह जायगा और विचिंकल्पक तथा.. सविकल्पकरूप प्रमाणद्वय अभाव में साधक प्रमाणन होने से सकाल प्रमेय का भी अभात्र ही प्राप्त होगा। यदि शब्द तथा शांशी का स्मरणात्मक चिकल्य वाचक शमयोग के बिना ही होता है तो विकल्प का अभिलापवाय लक्षण अध्याय हो अयता और जिस तरह शब्द तथा साध्यांशों का मरणात्मक विकल्प सहायक अभ्य शब्द के प्रयोग के बिना ही हो जाता है उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोग की योग्यता के बिना ही हो जाँथगे, सथा चक्षुरादियुधियाँ शब्द प्रयोग के बिना ही नीलपीतादि पाधा का निश्य करने के कारण स्वतः असायत्मिक सिद्ध हो जायगी। अराः विकल्प का अभिलापत्र लक्षण दृपित है। विकल्प का मिपि लक्षण है--समारोपविरोधी मारण या निश्चयात्मकाव।
माय श्रोत्रादि इमियों की वृत्तियों को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। अफटदेव कहते हैं कि-धोनादि इन्द्रियों की वृत्तियों तो नैमिरिक रोगी को होने वाले द्विचनवज्ञाम तथा अन्य संशयादिशानी में भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं हैं।
मैयायिक इन्द्रियों और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। इसे मी अकलंकदेव है सत्र के ज्ञान में अध्याप्त बताते हुये लिखा है कि-विकास-निलोफावर्ती यावत् पदार्थों को विश्य करने पाला सर्व का ज्ञान प्रतिमयत शनिवाली इन्द्रियों से सो उत्पात महीं हो सस्ता, पर प्रत्यक्ष सो अवश्य हैं। अतः सनिक अध्याप्त है । चक्षु के द्वारा रूप का प्रत्यक्ष समिकर्ष के बिना ही हो जाता है। चाक्षुप प्रत्यक्ष मेसनिक की आवश्यकता नहीं है। काँच आदि से व्ययहित पदार्थ का शान सश्विक की अमावश्यकता सिद्ध कर हो देता है।
प्रत्यक्ष के भेद-अफलक देव ने भत्यक्ष के सीन भेद किये है- इन्दिा प्रत्यक्ष २ अमिन्द्रिय प्रत्यक्ष ३ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । पशु आदि इन्द्रियों से रूपादिक का स्पष्ट झान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। मनके द्वारा सुख आदि की अनुभूति मानस प्रत्यक्ष है। अकला देव ने लधीयस्त्रयस्थवृति में स्मृति संज्ञा शिता
साना