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[24] 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' ॥३२॥ इत्यादि । २. जब एक ही स्थान दो भिन्न भिन्न सूत्रों की एक साथ प्रवृत्ति होनेवाली हो अर्थात् दोनों सूत्र के बीच यदि स्पर्धा हो तो, दोनों सूत्र में से किसकी पहले प्रवृत्ति हो, उसका निर्णय करने में ये परिभाषा सूत्र सहायक है । उदा. 'बलवन्नित्यमनित्यात्' ॥४१॥ ‘अन्तरङ्गं बहिरङ्गात् ॥४२॥ इत्यादि । ३. कुछ परिभाषाएँ ऐसी है जो शब्दों की सिद्धि में सहायक है अर्थात् असाधु अनिष्ट शब्दों की सिद्धि
को रोककर इष्ट/साधु शब्दों की सिद्धि करने में सहायक है । उदा. 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' ॥१६॥ 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥२०॥ इत्यादि । ९. परिभाषाओं-न्यायों का सूत्रक्रम
परिभाषासंग्रह में संगृहीत पाणिनीय परम्परा की विभिन्न परिभाषा वृत्तियाँ और परिभाषापाठ व साथ साथ अन्य परम्परा के परिभाषापाठ या वृत्तियाँ देखने से पता चलता है कि परिभाषासूत्रों का क्रम नियत नहीं है । समय की परिपाटी के अनुसार सर्वप्रथम-परिभाषाओं का संग्रह और उन पर वृत्ति व्याडि ने ही लिखी है, उन्होंने परिभाषाओं का जो क्रम दिया है वही क्रम शायद उनके बाद अन्य परम्परा के परिभाषासंग्रहकार शाकटायन और चान्द्र ने भी रखा है।
तो एक ही परम्परा में प्राप्त विभिन्न परिभाषावृतियाँ या परिभाषापाठ में एक समान क्रम नहीं है। उदा. दुर्गसिंहकृत कातंत्रपरिभाषासूत्रवृत्ति और भावमिश्रकृत कातंत्रपरिभाषावृत्ति में यद्यपि अनुक्रम से पैंसठ (६५) परिभाषाएँ तथा (बासठ)६२ परिभाषाएँ होने पर भी भिन्न भिन्न क्रम दिखाई पडता है, इतना ही नहीं अपि तु बहुत सी परिभाषाएँ भी भिन्न भिन्न है।
प्रो. के. वी. अभ्यंकर द्वारा संपादित 'परिभाषासंग्रह' में कुल मिलाकर उन्नीस परिभाषावृत्तियाँ है। उनमें शाकटायन, चान्द्र, कालाप, जैनेन्द्र, भोज और हैम परम्परा के केवल एक ही परिभाषापाठ या परिभाषावृत्ति उपलब्ध है, जबकि कातंत्र परम्परा की दो परिभाषावृत्तियाँ और एक परिभाषापाठ प्राश है, तो पाणिनीय परम्परा में सब से अधिक दश परिभाषावृत्तियाँ या परिभाषापाठ प्राप्त है।
उन सभी परिभाषावृत्तियों में परिभाषासूत्रों का क्रम और संख्या एक समान नहीं है । इसका कारण 'परिभाषा' शब्द की व्याख्या का अनयत्य हो सकता है क्योंकि पूर्वकालीन परिभाषावृत्तिकार द्वारा संग्रहीत परिभाषासूत्रवृत्ति में से कुछेक परिभाषासूत्रों को पश्चात्कालीन परिभाषावृत्तिकारों ने मान्य नहीं किये हैं । अर्थात् उसका खंडन किया है।
पाणिनीय परम्परा के पूर्वकालीन वैयाकरणों ने परिभाषाओं के क्रम के लिए शायद अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट सूत्र क्रम को अपनी नजर के सामने रखा होगा, तो अन्य किसने वार्तिकों को अपने सामने रखा होगा, वैसे अन्य किसीने महाभाष्य को अपने सामने रखा होगा । अत एव परिभाषा के क्रम में अन्तर मालूम पडता है।।
सीरदेवकृत बृहत्परिभाषावृत्ति में पाणिनीय अष्टाध्यायी की भांति आट अध्याय और उसके भिन्न भिन्न पदों के नाम निर्देश के साथ परिभाषाएँ बतायी गई हैं। अत ऐसा अनुमान हो सकता है कि उन्हों ने अष्टाध्यायी के क्रम का ही, परिभाषाओं के क्रम में अनुसरण किया है और अन्त में उन्होंने अष्टाध्यायी के भिन्न भिन्न पादों को छोडकर सर्वसामान्य परिभाषाओं का भी संग्रह किया है और उसे 'न्यायमूला: परिभाषाः' कही है । ऐसी परिभाषाओं की संख्या ३२ है।
इसी बहत्परिभाषावत्ति की श्रीमानशर्मनिर्मित टिप्पणी में भी यही क्रम उन्होंने रखा है। 37. द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह' : प्रो. के. वी. अभ्यंकर, पृ. १६१ से २५६ 38. द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह', : प्रो. के. वी. अभ्यंकर, पृ. २५६ से २७२ परिभाषा १०० से १३१ 39. द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह', : प्रो. के. वी. अभ्यंकर, पृ. २७३ से २९२.
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