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तब वह मुनि चर्या के लिए नगर में उसी वेश्या के मकान के बाहर होकर गये तो उस वेश्या ने पहले के अनुसार विचित्रमति मुनि को भक्ति पूर्वक नमस्कार करके पूछा कि हे मुनिवर ! कल जो मैंने अणुव्रत एक मुनिराज से लिए थे उसका फल क्या है ? तब मुनिराज ने उसका फल विपरीत बतलाया । इस बात को सुनकर उस वेश्या ने विचारा कि कल जो मुनिराज पधारे थे उनसे श्राज यह मुनि विपरीत मालूम होते हैं । मुनिराज ने उसको विपरीत कथाएं सुनाई ।
मेरा मंदर पुराण
कामातुराणां भयं न लज्जा
तदनंतर उस वेश्या को क्रोध आ गया और अधिक देर तक बात न करके अपने घर वापस चली गई । वे मुनि उस वेश्या से समागम करने का उपाय सोचने लगे ।
उस नगर का राजा गंधमित्र था । वह मांस भक्षण करने का लोलुपी था । वह मुनि उनके रसोइया के साथ जाकर मिला और उससे मिलकर मित्रता करली । वह धूर्त मुनि नित्य स्वादिष्ट मांस लाकर उस रसोइया को देता था और उस मांस को खाकर वह राजा उस पर प्रसन्न हो गया और कहने लगा कि मैं तुमसे प्रसन्न हूं । तुम जो चाहो सो मांगो। उसने कहा कि मुझे और कुछ नहीं चाहिए केवल आपके नगर में जो बुद्धिसेना वेश्या है उससे मैं विषय भोग करना चाहता हूँ । तब राजा ने तथास्तु कह कर उस वेश्या को बुलाया और उस धूर्त मुनि के सुपुर्द कर दिया। वह धूर्त विषय भोग में रत हो गया और अन्त में मरकर वह हाथी की पर्याय में प्राया है। अब उसको उस मुनि महाराज के प्रभाव से जाति स्मरण हो गया और इसने मांस भक्षरण करना छोड़ दिया । इसीलिए मांस मिश्रित आहार नहीं किया ।
तब रत्नायुध को मुनिराज से उपदेश सुनकर संसार से वैराग्य हो गया और जिन दीक्षा धारण करली और उनकी माता रत्नमाला ने भी अपने पुत्र से साथ २ उन मुनिराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली । धर्म ध्यान करते २ समाधिपूर्वक मरण करके ये दोनों अच्युत कल्प में देव हो गए।
तदनंतर उस कुक्कुट सर्प का जीव पाप कर्म के उदय से चौथे नरक में गया । और वह जीव चार सागर काल तक त्रस पर्याय में भ्रमरण करता रहा। वहां से आयु पूर्ण करके ग्राकर कच्छपुर नगर में तारण तरण नाम का भील उत्पन्न हुआ । उसकी स्त्री का नाम मंगी था । उनके प्रतिदारुरण नाम का पुत्र हुआ ।
वह भील एक दिन अपने हाथ में धनुष बाण आदि लेकर वहां के पर्वत पर गया । वहां देखा कि वज्रायुध नाम के मुनि तपश्चरण कर रहे हैं। उन पर उस भील ने अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग किये । इस उपसर्ग को सहन करते हुए ध्यान में लीन होकर प्राण छोड़ सर्वार्थसिद्धि में जाकर प्रहमिंद्र नाम के देव हुए। और पाप के उदय से आयु पूर्ण करके वह भील सातवें नरक में गया ।
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अष्टम अध्याय समाप्त
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