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मैं इस समय काफी दुविधा में से गुजर रहा हूँ | जगत अपनी मूक आंहों से मुझे बुला रहा है. पर इधर में आंसुओं से घिरा हुआ है। जगनके प्रति जो मेरा कर्तव्य है वह मुझे दुविधा डाल रहा है कि जातकी सेवा के लिये घर से निकल ! दूसरी कहती है कि एक निरपराध पत्नी को अवैधव्य में भी वैधव्य की यातना देने का तुझे क्या अधिकार है ? कम से कम तू तब तक घर नहीं छोड़ सकता जब तक वे तुझे मन से अनुमति न दे दें। पर वह कौनसी पत्नी है जो ऐसे कार्य के लिये पति को मन से अनुमति दे दे ? और माताजी ! उनका क्या पूछना ? वे तो शायद मेरे जाने की बात सुनते ही आंसुओं की नदी बहाने लगेंगी । पत्नी तो लज्जावश संकोच वश अश की आग की तरह भीतर ही भीतर जलती रह सकती है पर माता को ज्वाला की तरह जलने में क्या वाधा है ? ऐसा होता है कि मुझे इसके लिये कुछ वर्ष रुकना पड़ेगा | वीस वर्ष की अम्र हो चुकी है इसलिये कुछ ही वर्ष और रुक सकता है, पर न जाने कब तक रुकना पड़े ।
5.
मालूम
महावीर का अन्तम्नल
ठीक तो है, मेरे संकल्प को परीक्षा भी तो होना चाहिये. यह भी तो पता लगना चाहिये कि वह क्षणिक आवेग नहीं था । इस बीच अपने विचार पत्नी के मन में भी अंकित करना चाहिये । या तो मुझे विवाह करना ही नहीं था अगर किया था तो भटका देकर ताड़ने की निर्दयता न करना चाहिये | इस वाट देखने में एक लाभ यह भी है कि भविष्य की तैयारी का मुझे काफी अवसर मिलता है |
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हां ! यह बात जरूर है कि आजकल मेरी जैसी मनोवृत्ति हैं उसे देखते हुए यह वसन्त फीका जारहा है । मुझे अपनी चिन्ता नहीं है। मुझे तो जैसा बन्त वैसा निदाघ, फिर भी मैं चाहता हूँ कि मेरे कारण देवी का वसन्त फोका न जाय । मैं