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महावीर का अन्तस्तल -
सुपेक्षा करता है | अगर योग्यता की निन्दा नहीं कर सकता तो योग्यता की सफलता में दुरभिसन्धि की कल्पना करके उसकी निन्दा करता है । यह है तो बुरी बात पर साधारण मनुष्यों में प्रायः पाई जाती है । गोशाल ने भी श्रर्द्रक के साथ छेड़छाड़ करके अपनी इसी मनोवृत्ति का परिचय दिया ।
उसने आईक से कहा- आर्द्रक, जरा सुनो तो । तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पहिले तो बड़े एकांतप्रिय और मौनी रहते थे, और अब यह क्या तमाशा मचा रखा है कि बड़ी बड़ी साधुमण्डली और सभाओं में बैठकर उपदेश फटकारते हैं. लोगों को प्रसन्न करते हैं, अब वे इस धन्धे के चक्कर में क्यों पड़गये ?
आईक - यह धन्धा नहीं हैं श्रमण, किन्तु जिस सत्य का प्रभुने साक्षात्कार किया है उसे जगत को देने का झुपकीर है।
गोशाल - बहुत दिनों बाद सूझा यह उपकार । पर ऐसे चहुरूपिया का कौन सा जीवन ठीक समझा जाय ? पहिले का एकांतमय निर्दोष जीवन या आजकलका कोलाहलपूर्ण अशान्त जीवन | मैं तो समझता हूं कि उनका पहिला जीवन ही पवित्र था, अगर वे झुससे ऊब न जाते तो बहुत कल्याण करते. !
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आईक - कल्याण तो उनका होगया, अब तो जगतकल्याण की बारी है । झुनकी एकांत साधना जगत कल्याण के लिये ही तो थी, जब साधना हो चुकी तब उसके द्वारा जगतकल्याण न करते तो उनकी साधना व्यर्थ होजाती । एक आदमी अकेले में बैठकर भोजन पका सकता है पर खिलाने के लिये तो भोजन के परिमाण के अनुरूप अधिक मनुष्य बुलाता ही है। प्रभु ने जो अनन्त - ज्ञान का भंडार पाया है उसका वितरण वे मनुष्य
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