Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 381
________________ महावीर का अन्तस्तल [३४२ AARARA WAwar म. महावीर और सत्यसमाज महावीर के अन्तस्तल में महावीर स्वामी का जीवन चरित ही नहीं है, ससूचे जैन धर्म का मर्म भी है और साथ ही धर्म संस्थाओं के स्वरूप पर भी सच्चा प्रकाश पड़ता है। कोई महान से महान व्यक्ति और महान से महान धर्म संस्था भी समाज के कल्याण के लिये है, जगत के सुधार के लिये और उसकी समस्याओं को हल करने के लिये है, और यही उसके अच्छे बुरे या जीवित मृत की कसौटी है व अन्तस्तल को पढ़ने से उस युग की समस्याओं का और उन्हें हल करने के लिये म. महावीर के घोर प्रयत्नों का पता लगता है । तप त्याग विश्वहितैपिता और दिनरात की सेवा के कारण हृदय कृतज्ञता से और विनय से भर जाता है। परंतु म. महावीर के प्रति कृतज्ञ रहते हुए भी हम म. पार्श्वनाथ के प्रति भी कृतज्ञ रहते है हालांकि दोनों तीर्थंकर होने से दोनों के अपने अपने तीर्थ थे । महावीर स्वामी के तीर्थ में म. पार्श्वनाथ का तीर्थ समागया, द्रव्यक्षेत्र काल भाव के अनुसार स्वतन्त्र रूप में आवश्यक क्रांति हुई, पर मान्यता दोनों की रही । जैन धर्म का यह सफल प्रयोग इस बात की निशानी है कि क्रान्ति होजाने पर भी, भिन्न भिन्न तीर्थकर होजाने पर भी, नये पुराने की विनय भाक्त समान भाव से रक्खी जासकती है । अनेकांत सिद्धांत का यह बहुत सुन्दर व्यावहारिक रूप था, बड़ी से बड़ी सार्थकता थी। - म. पार्श्वनाथ के निर्वाण के बाद सिर्फ पौने दो सौ वर्ष वर्ष में म. महावीर का जन्म होता है । इसप्रकार दोनों के न काल में अधिक दूरी है न क्षेत्र में अधिक दूरी, उन दोनों के युगों में वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से भी कोई विशंप अन्तर नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387