Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 363
________________ अन्तस्तल इसका भी तो पता होना चाहिये । जगत तो प्रवाह में वह रहा है, यह प्रवाह जीवन को कहां बहा ले जायगा इसका क्या ठिकाना ? ऐसी कोई जगह तो नहीं मालूम होती जहां प्रवाह न पहुँचे । __ गौतम है, पानी में एक द्वीप ऐसा है जहां प्रवाह का डर नहीं है, वह मोक्ष है। केशी-पर यह शरीर रूपी नौका उस द्वीप तक पहुँगी कैसे ? इस में तो छेद ही छेद हैं इससे तो पाप ही होते . रहते हैं । गौतम-महावीर प्रभुने उन आश्रवों को रोकने के उपाय वताये हैं जिनसे शरीर रहने पर भी पाप आत्मा में नहीं आपाते। आश्रव के रोक देने पर शरीर रूपी नौका पानी में रहने पर भी पानी से नहीं भरती । पापमय हिंसामय संसार में रहने पर भी प्राणी पाप से लिप्त नहीं होता। केशी-पर निष्पाप बनकर आखिर यह आत्मा कहां रहेगा, यह संशय बना ही रहता है। गौतम सबसे अच्चस्थान पर, मोक्ष में। : केशी-आपकी बातों से बड़ा सन्तोष होता है महाभाग । जगत में आज बड़ा अंधेरा फैला हुआ है । कोई ध्येये स्पष्ट नहीं है । वितण्डावादों से बिलकुल शिशिलता आरही है । सब अंधेरे में टटोल रहे हैं। भाज तो किसी महाप्रकाश की जरूरत है। गौतम-सूर्य के समान जिनेन्द्र महावीर का उदय हो चुका है। अब सारा अंधकार दूर होजायगा। केशी-मानता हूं महाप्राण, मैं आपकी बातों को मानता हूं। आपकी बातों से मुझे बड़ा सन्तोप हुआ है और बड़ी आशा पैदा हुई है। अब में भी महावीर प्रभु को तीर्थकर स्वीकार करता हैं और उनके घर्म को अंगीकार करता है।

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