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महावीर का अन्तस्तल
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९४-- राज्य को दुलत्ती १० चन्नी ६४६० इ. सं.
राजगृह में अन्तीसवां ववाल विताकर मैं चम्पा नगरी की ओर झुसके उपनगर पृष्टचम्पा में ठहरा। यहां के राजा शाल ने मेरा अपदेश सुनकर श्रमण होने की इच्छा प्रगट की । वोला-में छोटे भाई को राज्य का भार सम्हलाकर दीक्षा लूंगा। पर जब छोटे भाई महाशाल को गव्य दिया जाने लगा तब उसने भी राज्य को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार बेचारे राज्य पर दुलत्तियां पड़ने लगी । न उसे शाल रखने को तैयार, न महाशाल लेने को तैयार।
मुझे इससे बड़ा सन्तोप हुआ।
भोग और लालसा से जगत में बंद होते हैं, पाप होते है । इस द्वन्द से भोग सामग्री नष्ट ही होती है । और लालसा. वालों का भी जीवन नष्ट और अशांत होता है । अगर लोग यह तृष्णा छोड़द तो द्वन्द बन्द होजाय। सभी शांति के साथ अधिक भोग प्राप्त कर सके । स्वर्ग और नरक इसी जीवन में पास पास है पर मनुष्य तृष्णा और और अज्ञान से स्वर्ग को ठुकराता है और नरक निर्माण करता है । शाल और महाशाल सरीखे लोग राज्य को दुलत्तियाँ लगाकर सिद्ध कर देते हैं कि असली सुख का श्रोत कहां है।
अन्त में राज्य लेने को जब कोई राजी न हुआ तम । उसने अपने भानेज को राज्य देकर प्रारज्या ग्रहण की।
९५- सोमिल प्रश्र १० अंका ६४६१ इ. सं.
पृष्टचम्पा से चम्पा आया । पूर्णभद्र चैत्य में टहरा। यहां श्रमणोपासक कामदेव की कट सहि गुता निर्भयता, मटूट