Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 374
________________ ३४२] महावीर का अन्ततिल यहां कुछ अन्य तार्थिकों ने मेरे स्थविर शिष्यों पर आक्षेप किया कि तुम लोग अदत्त ग्रहण करते हो, क्योंकि जिस समय दाता कोई चीज देता है वह चीज जब तक तुम्हारे पात्र में नहीं आजाती तब तक तुम्हारी नहीं है। बीच के समय में वह दीयमान है दत्त नहीं । जो दत्त नहीं वही तुम लेते हो इसलिये अदत्तग्राही कहलाये। - साम्प्रदायिकता के मोह में पड़कर मनुष्य किस प्रकार के हास्यास्पद आक्षेप करने लगता है इसका यह नमूना है। अस्तु, स्थविरों ने उत्तर दे दिया कि दाता के हाथ से छूटने पर वह हमारी होजाती है। हम दीयमान को भी दत्त मानते हैं। बस, इस उत्तर से बेचारे अन्यतीर्थिक निरुत्तर होगये । कैसे वालोचित परश्नोत्तर ! ४ धामा ९४६९ इ. सं. सेंतीसवां वर्षावास राजगृह में बिताकर तथा शुसके बाद मगध में ही बिहार कर फिर राजगृह आकर गुणशिल चंत्य में ठहरा हूं। गत वर्ष दीयमान और दत्त की चची में जो अन्यतीर्थिक निल्तर हुए थे उनने उसके आने का वक्तव्य सोचविचार लिया है । अब अपनी बात जमाये रखने के लिये वे कहने लगे है कि. दीयमान दत्त नहीं होसकता, चलमान चलित नहीं होसकता। क्योंकि दीयमान यदि दत्त होजाय तो दान की क्रिया बन्द होजाना चाहिये, चलमान यदि चलित होजाय तो चलने की क्रिया वन्द होजाना चाहिये । वे लोग नीचा दिखाने के लिये किस प्रकार बाल की निस्तार हुए थे बात जमाये रखनमान चलित

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