Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 377
________________ महावीर का अन्तस्तल इसीलिये जीव को विशेषतः मनुष्य को भवितव्य के भरोसे या कार्यकारण परम्परा के भरोसे अकर्मण्य या अनुत्तरदायी न बनना चाहिये, किन्तु उन्नति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। १०२-तत्व अतत्व १० चिंगा ११६७२ इ. सं. मिथिला में उन्तालीसवां चातुर्मास विताकर विदेह में विहार किया और फिर चालीसवां चातुर्मास भी मिथिला में बिताया। वहां से मगध की तरफ विहार कर राजगृह के गुण शिल चैत्य में ठहरा । यहां अग्निभूति वायुभूति का देहान्त पर होगया । अव मेरे गणवरों में इन्द्रभूति और सुधर्मा ही वच रहे हैं। - मेरा शरीर भी कुछ शिथिल हो चला है पर जगदुद्धार का कार्य तो अन्त समय तक करना ही है। मैंने इकतालीसवां चातुर्मास राजगृह में बिताया। इन दिनों गौतम ने मुझ से ऐसे बहुत से प्रश्न पूछे जिनका मोक्षमार्ग से सम्बन्ध नहीं है। जैसे सूर्य और चन्द्र तथा तारों की स्थिति गति, विश्व रचना, युगपरिवर्तन, परमाणुओं की रचना, झुनका बन्ध विघटन तथा रासायनिक परिवर्तन आदि । यहां तक कि राजगृह में जो उष्ण जल के स्रोत वहते हैं । उनका कारण भी पूछा।। इन दिनों में गौतम के इन सब प्रश्नों के उत्तर बहुत विस्तार से देता रहा हूं। और गौतम के लिये वे सन्तोष-जनक भी हुए हैं । पर आज मैंने गौतम से इस विषय में एक रहस्य की बात कही। मैंने कहा-गौतम इस बात का ध्यान सदा रखना है कि

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