Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 357
________________ महावीर का अन्तस्तल | ३२५ गौतम - पर जमालि तो सत्य से भ्रष्ट होकर भी तीर्थकर चन रहा है । सुनते हैं अमने नया सिद्धान्त भी निकाल लिया है । कहता है - जब तक कोई क्रिया पूरी न होचुके तत्र तक उसे हुई न कहना चाहिये । क्रियमाण को क्रियमाण और हुई को हुई कहना चाहिये । मैं- यद्यपि यह सत्य है फिर भी व्यवहार को भुलाकर है । जो सत्य व्यवहार में न सुतरे वह सत्य किसी काम का नहीं | पर यह जमालि का मतभेद हुआ नहीं है किन्तु उसने मतभेद पैदा किया है । वह मतभेद के कारण अलग नहीं हुआ, किन्तु अलग होने के कारण मतभेद बनाया । गौतम - असके पास जो कुछ पूंजी है सब आपकी दी हुई है, और आज भी लेता रहता है और असी को औंधासीधा करके या नाममात्र का ननु नच लगाकर वह अपने नामसे चला रहा है । वह प्रथम श्रेणी का नामचोर और कृतघ्न है । मैंने - दुर्भाग्य बेचारे का ! जो ईमानदारी से बहुत कुछ पासकता था वह वेईमानी से मृगतृष्णा के पीछे पड़ा है । महाकाल तो सब साफ कर देगा । जिस नाम के लिये वह यह सब पाप कर रहा है वही नाम बदनाम होजायगा । महाकाल असे चोर और कृतन्न रूप में जगत के सामने रखेगा । गौतम आश्चर्य भंते, जमालि इतना निकट सम्बन्धी होकर भी आपको न समझा । मैं निकट सम्बन्धी था इसीलिये तो न समझा। गौतम, एकाध अपवादात्मक घटना को छोड़कर ज्ञातिजन किसी तीर्थकर या जनसेवक को नहीं पहिचान पाते, न उसके प्रति ईमानदार रहते हैं । उसे लूटना, विश्वासघात करना, उसका अपमान करना वे अपना अधिकार समझते हैं ।

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