Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 352
________________ ३२०] महावीर का अन्तस्तल ~.wommmmmm • काश्यर कि मैं कौन हूं। मैं तुम्हारा शिष्य गोशालक नहीं. किन्तु उदायी कुण्डियायन हूं। मैं-अपने को और अपनी कृतघ्नता को छिपाने के लिये है खूब कहानी गढ़ी गोशाल तुमने । सम्भव असम्भव का विवेक भी न रहा । पर क्या इस तरह सन के एक नहीं सात तन्तुओं से कोई चोर छिप सकता है ? __गोशालक-काश्यप तुम बहुत धृष्ट होगये हो । मालूम होता है कि अब तुम्हारी मौत आगई है। गोशालक के ये शब्द सर्वानुभूति श्रमण से न सुन गये। उनने कहा--- गोशालक महाशय, इतने कृतघ्न न वनो । एक भी धर्म घचन सुनकर सज्जन जन्मभर कृतज्ञ रहते हैं और तुम वर्षों प्रभु के साथ रहे, उन्हीं से सब कुछ सीखा, उन्हीं की पूंजी से यह नई दुकानदारी खड़ी की और अब अन्हीं का ऐसा अपमान करते हो! कुछ ता लाज शर्म रखना चाहिये । सर्वानुभूति की बात से गोशाल का क्रोध भड़का, और उसने प्रचण्ड मुद्रा बनाकर, मनमें कुछ मन्त्र पढ़कर अपने दाहिने हाथ की मुट्ठी इस तरह चलाई मानों ज्वाला फेंकी हो और कहा वस तू इसी क्षण मरजा। सर्वानुभूति इससे घबरागये और हाय खाकर जमीन पर गिर पड़े। - इसके बाद गोशालक ने मुझ और भी अधिक मात्रा में विचित्र विचित्र गालियाँ देना शुरू की । मैं शांति से सहता रहा परन्तु श्रमण सुनक्षत्र से ये गालियाँ न सुनीगई इसलिये उनने गोशाल को काफी फटकारा, पर गोशाल ने उन्हें भी सर्वानुभूति की तरह जमीन पर गिरा दिया।

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