Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 344
________________ ३१२] महावीर का अन्तस्तल इस तरह अपने गुरु के सामने मांग पेश नहीं करता। - जमालि-मांग न करूं तो क्या करूं ? आपने मुझे कोई चीज अपने आप दी है ? आपने गौतम की हजार वार प्रशंसा की, मेरी एक बार भी की ? यश सन्मान स्नेह आप गौतम के ऊपर उड़ेलते रहते हैं, पर मुझे कभी पूछते भी हैं ? मैं--गौतम की सेवाएँ जितने यश सन्मान के योग्य हैं गांतम को उतने की भी पर्वाई नहीं है इसलिये मुझे उसकी पर्वाह करना पड़ती है । पर तुम्हें जितना मिलना चाहिये उतना या उससे कुछ अधिक तुम अपने आप ले लेते हो तर वच ही स्या रहता है जो तुम्हें दूं। जमालि-आपको मेरी योग्यता का पता नहीं है भगवन्. मैं तार्किक है, वक्ता हूँ निर्माता हूँ, गौतम तो रटने में ही होश्यार है। फिर भी आपने उन्हें गणधर बना रक्खा है और मेरी अवहेलना की है। में-तुम जिसे गौतम की अयोग्यता समझ रहे हो वह गौतम की अयोग्यता नहीं संघसेवा है। गौतम श्रुतकी रक्षा करना चाहते हैं और तुम उसपर अपने नाम की छाप लगाने के । लिये विकृत करना चाहते हो। - जमालि के चेहरे पर लज्जा और रोष दोनों का मिश्रण पुतगया। क्षणभर चुप रहकर वह वोला-आप जो चाहे समः झिये । पर मैं अव इस संघ में रह नहीं सकता। मैं-चुप रहा। जमालि-चलागया। २८ चिंगा ९४५४ इ. सं. आज गौतम से मालूम हुआ कि कल जमालि मेरे पास

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