Book Title: Mahavira ka Antsthal
Author(s): Satyabhakta Swami
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 348
________________ , ३१६ १ महावीर का अन्तस्तल चुरा कर कोई कितनी भी कोशिश करे उसकी चोगी आज नहीं तो कल खुल ही जायगी । जमालि - अच्छा, जाने दो गौतम, तुम्हें दासता ही पसन्द है तो तुम दास वन रहो, मैं स्वतन्त्र बलूंगा, जिन बलूंगा, तीर्थकर बनूंगा। अब मैं जाता हूँ । गौतम -- जाओ । पर याद रक्खो कि कृतघ्न और चोर अपने को धोखा भले देले पर जगत को कभी धोखा नहीं देसकते; और महाकाल को तो धोखा दे ही नहीं सकते । जमालि मुँह विगाड़कर चला गया । गौतम के मुँह से यह सब समाचार सुनकर मुझे कुछ तो खेद हुआ और कुछ दया आई। बेचारा जमालि अहंकार का शिकार होकर अपना जीवन नष्ट कर रहा है । और बेचारी प्रियदर्शना भी भ्रम में पड़कर मिथ्यात्व का शिकार हुई है । वह भी असी के साथ चली गई है । मेरी पुत्री होकर भी प्रियदर्शना इतनी जल्दी सत्यभ्रष्ट हुई यह इस बात की निशानी है कि जीवन में कुल जाति या वंश का कोई मूल्य नहीं है । 1 ८९ - गोशाल का आक्रमण ४ चन्नी ९४५, इ.सं. हुए श्रावस्ती से निकलकर वत्स भूमि में विहार करते कौशाम्बी आया। वहां से काशी देश में भ्रमण कर राजगृह आया । यहां गुणशिल चैन्य में चौवीसवां चातुर्मास किया । इस वर्ष नेहास और अभय आदि का देहान्त होगया । राजगृह से चम्पा आया । अब यह राजधानी वन गई है । राजा श्रोणिक के देहावसान के बाद कुणिक ने इसे राजधानी बना लिया है | श्रेणिक के साथ कुणिक ने जो दुर्व्यवहार किया,

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