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महावीर का अन्तस्तल
यों ही निकल जायँगे पर तुम्हें एक युग का प्रत्येक क्षण गिन गिनकर निकालना है । फिर भी दुनिया मेरी तपस्या देखेगी और तुम्हारी तपस्या न देखेगी नीचे के पत्थर पर मन्दिर खड़ा होता है पर उसे कौन देखता है ?
इतना कहकर लक्ष्मण ने ऊर्मिला के आंसू पोछे, ऊर्मिला ने गद् स्वर में कहा जाओ देव-जाओ ! सत्य और न्याय के सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिये जंगल में साधना करो ! तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठा तुम्हें राज- मन्दिर में नहीं रहने देना चाहती तो भले ही न रहने दे, पर मेरे हृदय मन्दिर से निकालने की शक्ति किसी में नहीं है; विधाता में भी नहीं !
लक्ष्मण ने कहा- देवि, तुम्हारी इस तपस्या को कोई पहिचाने या न पहिचाने पर एक हृदय जरूर ऐसा है जो तुम्हारी इस साधना का मूल्य आंकने में कपर्दिका की भी भूल न करेगा ।
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इतना कहकर धीरे धीरे लक्ष्मण विदा होगया । उनके विदा होते ही ऊर्मिला मूच्छित होकर गिर पड़ी ।
इसमें सन्देह नहीं कि लक्ष्मण और ऊर्मिला का अभिनय अत्यन्त स्वाभाविक और कलापूर्ण था, उसने सारी सभा को स्तब्ध बनादिया था । पर रंग मंच पर तो केवल अभिनय था, जब कि मेरे ही बगल में व अभिनय वास्तविकता में परिणत होगया ! मंच पर से लक्ष्मण के विदा होते ही यशोदा देवी कांपने लगी और थोड़ी देर में उनका शरीर पसीना-पसीना हो गया। मैं उन्हें सम्हालूँ इसके पहले ही वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं । मैंने और भाभी ने झपटकर उन्हें उठा लिया । संभा उठ खड़ी हुई । भीड़ ने हम सब को घेर लिया । किसी तरह