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महावार का अन्तस्तल
मुट्ठी में है । धन वैभव में, परिग्रह में, असली सुख देखने की चंष्टा करोगे तो असफल रहोगे { असली सुख अपने भीतर है।
पर यह सत्य जो मैं जगत् को देना चाहता है वह कंबल प्रवचनों से न होगा । उसके लिये अनेक तरह की ऐसी योजनाएं करना पड़ेगी जिससे लोग कल्याण मार्ग पर विश्वास कर सकें अच्छी तरह समझसके, आचरण कर सके। इसके लिये पक नया तीर्थ बनाना, और उसकी तरफ लोगों का आकर्षण करना जरूरी है।
क्षणभर का यह विचार मनमें आया कि क्या इससे अमटेंन देगी ? क्या अशांति न होगी। क्या यह यशपूजा का व्यापार न होगा? क्या इसमें एक तरह की आत्मश्लाघा न करना पड़ेगी?
निःसन्दह यवीतराग मनुष्य में ये मब बातें होती है। पर मुझमें ये विकार नहीं है । निरिच्छकता से, योग्य नट की . तरह निर्लिप्तभाव से काम करने से झंझटें नहीं बढ़ती अर्थात् झंझट मनके कार असर नहीं करती, दुखी नहीं करती, तर अशांति कैसे होगी? और यश पूजा आदि की मुझे चिन्ता नहीं है। जगत की सेवा करने से और सफलता प्राप्त करने से यशपृजा मिलती है। मिलना भी चाहिये, क्योंकि इससे अन्य मनुष्य भी जगत्सेवा की तरफ झुकते हैं । यशपूजा देकर जगत सच्चे उपकारकों का बदला उतना नहीं चुभाता जितना नये उपकारक पैदा करने के लिये मार्ग प्रशस्त करता है । सो जगत अपना मार्ग प्रशस्त करे, मैं यश प्रतिष्ठा का दाल न बनूंगा।
जो सत्य मैंने पाया है वह जगत् के कल्याण के लिये जगत को देना है। अगर अशान के कारण मनुष्य झुसे अस्वी. कार करे, ई पं. कारण द्वेष करे, निन्दा करें और असत्य के