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महावार का अन्तस्तल .
... ..... यो तो मनुष्य को बहुत कुछ सुनने को मिलता है, और सुनते सुनते कभी कभी वह ऊब भी जाता है फिर भी सत्य सुनने को नहीं मिलता । सत्य यह है कि जिससे जीवन का या सब जीवों का कल्याण हो । पर किस से कल्याण है : किस संस अकल्याण, यह बात द्रव्य क्षेत्र कालभाव का विचार किये बिना नहीं जानी जासकती । लोग हर पुरानी चीज को सत्य मान बैठते हैं। तर्क यह रहता है कि वह किसी जमाने में सत्य थी।
पर पहिले तो यह समझना भूल है कि कोई चीज पुरानी होने से सत्य है । दूसरे अगर कोई पुरानी चीज सत्य भी हो तो वह अपने युग के लिये ही लत्य होसकती है हर युग के लिये नहीं । शास्त्रों के बारे में जब तक इस दृष्टि से विचार न किया जाय तब तक उनसे भी सत्य नहीं मिल सकता । ऐसी हालत में सुनने से क्या लाभ।
दुसरी बात यह है कि लोग सत्य को शिवरूप या कल्याण म.प नहीं देखना चाहत, सुन्दर देखना चाहते हैं। यह ऐसी ही चाह है जैसे कोई औषध को स्वादिष्ट सर चाहे, और स्वादिष्टता से ही औषध की पहिचान करे । इससे अनेक बार भ्रम होता है । इसलिये भी बहुत कुछ सुनने को मिलने पर भी सत्य सुनने को नहीं मिलता। तुम्हारे लिये यह प्रसन्नता की बात है कि तुम्हें सत्य सुनने को मिल रहा है । जो अत्यन्त दुर्लभ है। ...
पर इतने स ही जीवन की सफलता नहीं है, जब तक सत्य पर श्रद्धा न हो तब तक सत्यश्रवणं ऐसा ही है जैसे भोजन तो कर लिया जाय पर पचाया न जाय । श्रद्धा के बिना सत्य को आत्मसात् नहीं किया जासकता। श्रद्धा के बिना ज्ञानका कोई मूल्य नहीं । श्रद्धा होने पर ही यह संमझा जासकता है कि जीव ने कल्याण के मार्ग में प्रवेश किया है, विकास की पहिली श्रेणीपर वह पहुँच गया है । यह श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है । तुम्हे अवसर