________________
www.^^
महावीर का अन्तस्तकल
[ ६१
अति कर दी | मैं अन्हें खाते पीते या सोते नहीं देख सका । पलंग की पाटी से सिर टिकाकर थोड़ा बहुत वे सो लेती होंगी, और वहीं बैठे बैठे वे थोड़ा बहुत कुछ पीलेती होंगीं, सबने उन्हें रातदिन पलंग के आसपास ही पाया ।
माताजी अपनी शोक विहलता के कारण किसीसे बोलती चालतीं नहीं थीं। पर देवी अपनी तपस्यासे उनका मौत व्रत भी भंग करती रहती थीं। माता जी को बार बार कहना पड़ता था- बेटी, तू यहीं क्यों बैठी है ? जाकर तनिक आरामसे सो जा ! खापीले, सभी लोग तो सेवा करने के लिये हैं, और फिर सेवा की इतनी जरूरत क्या है ? मुझे बीमारी ही कौनसी है ? दुर्बलता है, सो वह किसी न किसी तरह निकल ही जायगी ।
+
इस 'किसी न किसी तरह' का अर्थ किसी की समझ में आता हो चाहे न आता हो पर देवी की समझमें अच्छी तरह आता था। पर वे कुछ न कहकर आंसुओं से अपने कपोल धोने लगती थीं जिसके उत्तर में माता जी की आंखें भी छलछला आती थीं ।
उस समय अगर में सामने होता था ता माता जी की आंखे मेरी तरफ टकटकी बांध लेती थीं, अगर इस अवसर पर मेरी दृष्टि माता जी की दृष्टि से मिल गई हैं तो मुझे अपनी दृष्टि नाची कर लेना पड़ी है।
उनने मुँह से कुछ नहीं कहा, पर अनकी आंखें कहते लगती थीं- वर्द्धमान, तुमने मुझे दिया हुआ वचन पूरा किया है, फिर भी बहू की सूरत देखकर में बेचैन हूँ । अब तुमसे कुछ "भी कहने का मुझे अधिकार नहीं है, फिरभी बहू का सुह देखने का अनुरोध तुमसे करती हूँ ।