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मवीर का अन्तस्तल
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ग्वाला आया और मेरे निकट अपने बैलों को छोड़कर गायें दुहने चला गया । इधर बैल चरते चरते अटवी के भीतर घुलगये । जत्र ग्वाला लौटा तब उसने वहां बैल न देखे तब मुझसे पूछाअरे, ओ रे श्रमण, बता मेरे बैल कहां गये ?
मैं अहिंसा की उपेक्षणी साधना के अनुसार मौन ही रहीं । असने दो चार बार कुछ वकझक की । अन्त बोला कि क्या तुझे कुछ सुन नहीं पड़ता ? कान के जो बड़े बड़े छेद हैं, . तो क्या व्यर्थ हैं ? तब इनके दिखाने से क्या फायदा ? - ऐसा कहकर उसने दो लकड़ियाँ लेकर दोनों कानों में ठाक दीं ! अससे मेरे कानों में असह्य वेदना हुई; फिर भी मैं चुप रहा । ग्वाल तो चला गया और मैं विहार करता हुआ अपापा नगरी पहुँचा, और भोजन के लिये सिद्धार्थ वणिक के यहां गया । उसने मुझे भक्ति से भोजन कराया: परन्तु मेरे कानों में खुली हुई लकड़ियाँ देखकर बहुत चकित और दुःखी हुआ । अस समय उसका एक मित्र, जिसका नाम खरक था और जो प्रसिद्ध वैद्य था, वहां भाया हुआ था । उसने भी कानों में खुसी हुई लकड़ियाँ देखो, और दोनों उस बारे में विचार करने लगे 1 इतने में मैं वहां से निकलकर उद्यान में चला आया । पीछे सिद्धार्थ वणिक ओर खरक वैद्य औषध वगैरह लाकर उद्यान में आए । उनने मुझे एक तेल की कुण्डी में बिठलाया और वलिष्ठ पुरुषों के हाथों से मेरे सारे शरीर में इतने जोर जोर से मालिश करवाया कि हड्डियाँ ढीली ढीली होगई। पीछे दो मजबूत संडासियाँ लेकर कानों में खुसी हुई लकड़ियाँ जोर से एक साथ खींची। लकड़ियाँ खून में सन गई थीं। इसलिये जब वे खींची गई तब इतनी भयंकर वेदना हुई कि मेरे मुँह से भयंकर चीत्कार निकल पड़ा । पीछे उन लोगों ने घावों में संरोहिणी औषधि भरी और धीरे धीरे कुछ दिनों में घाव अच्छे हो गये ।