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महावीर का अन्तस्तल
स्मरण नहीं होरहा हैं। अपनी कपायों की मन्दता तो मुझे जन्मजात मालूम होती हैं, और शैशव में भी मैं हर बात का जिस ढंग से विचार करता था, उससे मालूम होता है कि मुझमें बीज रूप में विवेक भी जन्मजात है । इसप्रकार कहा जासकता है कि मैं अविरत सम्यक्त्व तो जन्म से ही हूं। पर इससे क्या ? वहा से बड़ा महापुरुष जन्म से मिथ्यावी होसकता है और पछि ऊँचे से ऊंचा विकास करके जिन बुद्ध अर्हत वन सकता है, तीर्थकर बन सकता हैं।
गुणस्थान
की अपेक्षा भी कषाय वासना ५ - जब चौथे और मन्द होजाय, व्यवहारोपयोगी संयम भी जीवन में दिखाई देने लगे, पापों से पूर्ण विरति तो नहीं, पर देशविरति होजाय तब देशविति नाम का पांचवां गुणस्थान होगा । इस गुणस्थान मैं परिग्रह का परिमाण तो हैं, बेईमानी नहीं है, पर कौटुम्बिकता जन्म-सम्बन्ध आदि में सीमित है | वह विश्वकुटुम्बी या गुण| एक ईमानदार कुटुम्बी नहीं है या पर्याप्त मात्रा में नहीं है । एक गृहस्थ जैसा होता हैं वैसा है।
६ - बट्टी श्रेणी में साधुता है, विश्वकुटुम्बिता या गुणकुटुम्बिता का भाव हैं, पर साथ में कुछ प्रमाद है । यद्यपि साधारण लोगों की अपेक्षा यह प्रमाद अल्प है और वह स्थायी भी नहीं है पर है अवश्य ।
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७- सातवीं श्रेणी में प्रमाद नहीं रहता इसे अप्रमत्त संयमी या अप्रमत्त विरत कहना चाहिये |
मं मैं दीक्षा लेने के पहिले भी बट्टे सातवें गुणस्थान 'चुका था । उसके बाद भी अभी प्रातःकाल तक में इन गुणस्थानों में रहा हूं ।