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महावीर का अन्तस्तल
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को मुझे खड्डा छाछ और कोद्रव का भात ही स्वीकार करना पड़ा । निष्क भी जो मिला वह यद्यपि खोटा कहकर नहीं दिया गया था पर निकला खोटा ही । इसलिये मेरा तो निश्चय होगया हैं कि जो भविष्य नियत है वह कितने भी यत्न करने से टल नहीं सकता ।
गोशाल की बात सुनकर सुझे उसके भोलेपन पर खूब हँसी आई। इस समय उसे समझाना व्यर्थ था । सोचा फिर कभी समझाऊंगा । असकी dia sच्छा देखकर मैंने उसे साथ रहने दिया ।
२२ धनी ६४३३ ई. सं.
आज मैं स्वर्णखल की तरफ रहा था, गोशाल मेरे साथ था हो । वीचमें एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिये 1 बैठ गये । कुछ दूसरे पथिक भी पथ की दूसरी ओर एक वृक्ष के नीच आकर ठहर गये । मध्यान्ह का समय आरहा था । वे बेवारे भूखे थे। मालूम हुआ कि उनके पास चावल ही थे और श्री एक छोटीसी हंडी | सुनने हंडी में चावल पकाकर ही क्षुधा को शांत करने का निश्चय किया । पथिक थे चार, और उसके पास चारों के खाने लायक चावल भी थे, पर हंडी ऐसी नहीं थी कि चारों के लिये भात पक सके । छोटी हंडी देखकर ही मेरा ध्यान जुस तरफ गया । और मैं कुतूहल से उनकी ओर देखने लगा उनने आग जलाई, इंडी चढ़ाई, उसमें पानी डाला चावर धोये और एंडी में डाल दिये। चावल इतने अधिक डाले कि इंडी गले तक भरगई । मैंने मन ही मन कहा कि अब इनका भात पक चुका | मालूम होता है इन लोगों ने कभी भात नहीं पकाया ।
इतने में गोशाल मेरे बहुत निकट आकर बोला- भगवन मुझे बहुत भूख लगी है. सामने ये लोग भात पका रहे हैं चलिये